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चंदनबाला की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
आख्यान करने वाले उपाध्याय को बुलाकर उनसे पूछा। उसने कहा - यतियों का द्रव्य आदि द्वारा अभिग्रह विशाल होता है। बिना किसी अतिशय के स्वामी का अभिग्रह नहीं जाना जा सकता। हे राजेन्द्र! आप नगरी में उद्घोषणा करवा दीजिए कि भगवान को सभी प्रकार की भिक्षा दी जानी चाहिए। राजा ने वैसा ही किया। लोगों ने भी अनेक प्रकार से दान देने की कोशिश की। किसी ने राजा की आज्ञा से, तो किसी ने प्रभु की भक्ति के वश से पर अपूर्ण अभिग्रह के कारण भगवान् ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया। सद्ध्यान रूपी अमृत को पीते हुए अम्लान भाव से सदा स्थित थे।
प्रासुक भिक्षा भी स्वामी द्वारा ग्रहण न किये जाने पर अपनी विभूति को निष्फल जानकर सभी पुरीजन खिन्न
बीच छः मास में पाँच दिन कम - इतने समय से अभिग्रह धारण किये हए प्रभ ने उस दिन भिक्षा के लिए धनावह वणिक् के घर में प्रवेश किया। चन्दनबाला भी प्रभु को आया हुआ देखकर अचानक पभनाल की तरह उठ खड़ी हुई। महा पुण्य! अहो पुण्य! इस जगत् में मेरा सबसे अधिक पुण्य है। क्योंकि आज भावी अरिहंत महात्मा मेरे पारणे पर भिक्षा के लिए पधारे हैं। इस प्रकार चिन्तन करती हुई चन्दना उड़द के बाकलों से भरा सूप लेकर चली। देहली के बाहर एक पग निकाला, दूसरा पग देहली के भीतर ही था। पर पृथ्वी से बेड़ी बन्धी होने के कारण वह देहली को उल्लांघकर जाने में सफल नहीं हो पायी। तब आँखों में आँसू भरकर अद्भुत भक्ति से स्वामी को वहीं खड़े होकर कहा - स्वामी यद्यपि यह भोजन आपके योग्य नहीं है, फिर भी हे करुणानिधि! मुझ पर करुणा करके ग्रहण करें। स्वामी ने भी अपने लिये हुए अभिग्रहों को पूर्ण हुआ जानकर श्रेष्ठ हाथों की तरह अपने हाथों को फैलाया। अपने आप को कृतार्थ मानते हुए चन्दना ने आनन्द युक्त होकर सूपड़े से कुल्माषों को प्रभु के कर कमलों में रखा। उसने विचार किया कि मेरी यह विपत्ति भी आज हर्ष का कारण बनी। स्वामी के अभिग्रह की पूर्ति कराने के लिए ही मेरी यह स्थिती बनी।
देवों ने भगवान् के अभिग्रह की पूर्ति से पारणा हुआ जानकर वहाँ आकर हर्षित होते हुए पाँच दिव्यों की रचना की। वस्त्रों की वर्षा की। आकाश में देव दुंदुभि बजायी। रत्न - वृष्टि, पुष्पवृष्टि तथा सुवासित जल की वृष्टि की। चन्दना की बेड़ी पाँवों की नुपुर बन गयी। सिर में नये केश उग आये। चन्दना के सर्वांगों को दिव्य कान्ति से भूषित किया। वाद्य की ध्वनि की तरह देवों ने उत्कृष्ट नाद किया। हर्ष के उत्कर्ष के वश में होकर देवों ने नृत्यगीत आदि किये। स्वामी के पारणे को जानकर सौधर्मेन्द्र भी वहाँ आया। तब वहाँ देवों तथा विमानों से स्वर्ग जैसी रचना हो गयी। संपूर्ण नगरी में हर्ष का कोलाहल व्याप्त हो गया कि धनावह श्रेष्ठि के घर पर स्वामी ने पारणा किया है। यह सुनकर श्रेष्ठि भी अपने आपको धन्य मानता हुआ शीघ्र ही अपने घर गया। उस प्रकार की भव्य समृद्धि देखकर वह मानो अमृत के सागर में डुबकी लगाने लगा। देव दुन्दुभि से यह वृतान्त जानकर शतानीक राजा, मृगावती रानी, मंत्री सुगुप्त तथा मन्त्री पत्नी नन्दा भी अपने परिवार व ज्ञातिजन के साथ वहाँ आये।
___ दधिवाहन राजा का द्वारपाल सम्पुल, जो चंपा के नष्ट हो जाने से मृगावती के पास आकर रहता था, वसुमती को देखने आया। वहाँ आकर व उसको देखकर उसके पैरों में प्रणाम करके मुक्तकण्ठ से रोने लगा। राजा ने कहा - भद्र! इस उत्सव पर शोकयुक्त विलाप क्यों कर रहे हो? उसने भी अश्रुओं से आप्लावित नयनों से राजा को कहा - यह तो राजा दधिवाहन तथा धारिणी की प्राणवल्लभा पुत्री है। आज यह किसी पराये घर में दासी की तरह रह रही है। यही देखकर रोना आ रहा है। राजा ने कहा - भद्र! ऐसा मत बोलो। चन्दना के लिए दुःख न करो। इसी के द्वारा भगवान् महावीर स्वामी के अभिग्रह पूर्ण हुए हैं।
मृगावती ने भी कहा - देव! धारिणी मेरी बहन है। उसकी पुत्री को मेरी पुत्री की तरह मुझे दिलाइये। यह सुनकर राजा ने स्नेहपूर्वक चन्दना को गोद में बिठाया। उसने कहा - मैं श्रेष्ठि की अनुमति से व्रत ग्रहण करूँगी।
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