________________
सम्यक्त्व प्रकरणम्
गोचरी के दोषों की व्याख्या इस प्रकार उपदिष्ट होने पर भी जो आधाकर्म भोजी है, उसके महादोष को बताते हैं - भुंजइ आहाकम्म सम्मं न य जो पडिक्कमइ लुद्धो । सबजिणाणाविमुहस्स तस्स आराहणा नत्थि ॥१३॥ (१२७)
आधाकर्मी आहार का भोग करने के उपरान्त सम्यग् भाव शुद्धि से आलोचनापूर्वक जो प्रतिक्रमण नहीं करता है, न ही उस भोजन से निवर्तित होता है वह लुब्ध है। सर्व जिनेश्वरों की आज्ञा से विमुख होने से उसकी आराधना परलोक की साधक नहीं है।।१३।।१२६।।
यदि ऐसा है, तो आगम में दुर्भिक्ष आदि होने पर आधाकर्मी आहार की आज्ञा कैसे दी गयी है, इसे बताते
संथरणम्मि अशुद्धं दुण्ह यि गिण्हंत दिंतयाण हियं ।
आउरदिटुंतेणं तं चेय हियं असंथरणे ॥१४॥ (१२८) प्रासुक एषणीय आहारादि से निर्वाह हो रहा हो उस समय अशुद्ध आहार देनेवाले एवं लेनेवाले दोनों का अहित है। एवं निर्वाह न होने के समय रोगी के दृष्टांत से दोनों के लिए हितकर है।
इसका कारण देश काल आदि की अपेक्षा है। कहा गया है - सव्वत्थ संजमं संजमाउ, अप्पाणमेव रक्खिज्जा । मच्चड अइवायाओ पणो विसोही न वाऽविरइ ॥ (ओघ नि. गा.४७) काहं अच्छित्ति अदवा अहीहं. तवोवहाणेस अणज्जमिस्सं । गणं च नीइस य सारइस्सं. सालंबसेवी समवेद मक्खं ॥ (प्रव. सा. गा.७७९) न वि किंचि अणुन्नायं पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं । एसा तेसिं [तित्थगराणं] आणाकज्जे सव्वेण होअव्वं ॥ (पंचवस्तु गा. २४०)
सर्वत्र संयम की रक्षा मुनि, आत्मा की तरह करे। प्राणीहिंसा का त्याग करे क्योंकि अविरति की विशुद्धि नहीं है। मैं शासन को अविच्छिन्न करूंगा। अध्ययन करूंगा, तपश्यादि से उज्ज्वल बनूंगा, गच्छ का नीतिपूर्वक पालन करूंगा। इस प्रकार के आलंबन सेवी मोक्ष को पाते हैं।
जिनेश्वरों ने किसी के लिए एकांत निषेध या एकांत विधान नहीं किया है। उनकी उतनी ही आज्ञा है कि सरल बनना और दंभ से असत्य आलंबन न लेना।।१४।।१२८॥ ____ अनेषणीय के परिभोग से अनिर्वाहित भी हित के लिए कहा गया है, वह क्या जैसे-तैसे है? तो नहीं है, यह कहते हैं -
फासुअएसणीएहिं फासुअओहासिएहिं कीएहिं । पूईइ मीसएण य आहाकम्मेण जयणाए ॥१५॥ (१२९)
आधाकर्मी आदि दोषों से रहित प्रासुक एषणीय आहार ग्रहण करना चाहिए। वह न मिलने पर प्रासुक आहार कहा गया है। प्रासुक की याचना में अलाभ होने पर क्रीत लाये। क्रीत नहीं मिले तो पूतिकर्म से दूषित आहार लाये। वह भी न मिले तो मिश्रजात दोष से दूषित आहार ग्रहण करे। वह भी न मिले तो आधाकर्मी दोष सहित ग्रहण करके शरीर की अवधारणा करनी चाहिए। गाद प्रयोजन न होने पर यतना पूर्वक समस्त क्षेत्र में तीन बार परिभ्रमण करके पूर्व-पूर्व का अलाभ होने पर उत्तर-उत्तर को ग्रहण करे। गाढ़ प्रयोजन होने पर तो सहसा ही आधाकर्मी आहार भी ग्राह्य है।।१५।।१२९।।
यहाँ शंका होती है कि पूर्व में तो आधाकर्मी आहार के भोग में आज्ञा-भंग कहा गया है और अब आज्ञा दी
234