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वज्र स्वामी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् होते हुए वृद्ध की तरह हो गया। वह यति की तरह स्थिर होकर कुछ भी चपलता नहीं करता था। प्रायः प्रासुक अशन-पान आदि द्वारा प्राण-यात्रा का निर्वाह करता था। जाति-स्मृतिज्ञान से सब कुछ जानकर वह अपने आप को मुनि की तरह मानता था। निहार आदि की इच्छा होने पर वह ज्ञान रत्न निधि की तरह अपनी धात्री-जनों को इशारा कर दिया करता था। अपने चारों ओर शय्यातर-पुत्रों के खेले जाने पर भी वह सामायिक ग्रहण किये हुए की तरह सभी के मध्य समभाव में आसीन होकर रहता था। आर्यिकाओं के उपाश्रय में वह पुस्तक आदि को ग्रहण करता हुआ ही खेलता था। वह प्रतिदिन बाल लीलाओं द्वारा साध्वियों को प्रमुदित करता था। साध्वियों के उपाश्रय में वस्त्र के झूले में झूलते हुए भी साध्वियों को पढ़ते-गुणते हुए सुनकर उस महामति वाले ने ज्ञानावरणीय कर्म की लघुता से (क्षयोपशम से) ग्यारह अंगों का अध्ययन उसी प्रकार किया जिस प्रकार मातृका अक्षर के उच्चारण मात्र से भगवान् द्वारा गणधरों को चौदहपूर्व का ज्ञान होता है।
सुनन्दा ने भी अपने आत्मज को सर्वांगीण गुणों से उज्ज्वल देखकर लुब्ध होते हुए शय्यातरी को कहा कि मेरा पुत्र मुझे समर्पित कर दो। उन्होंने कहा कि हम नहीं जानतीं कि यह पुत्र किसका है। गुरुदेव ने इसे हमारे पास धरोहर के रूप में रखा है। अतः गुरुदेव की आज्ञा बिना हम इसे अन्य किसी को नहीं देंगे। वज्र की माता रूपी बुद्धि से तुम हमारे घर पर भी मत आना। जैसे गरीब स्त्री दूर से भोजन को देखती है, वैसे ही वह भी अपने पुत्र को दूर से ही देखकर खेदपूर्वक विचार करती कि हा! मुझ दुर्बुद्धि ने यह रत्न हार-दिया है। फिर उन शय्यातरियों को अनुरोध करके वह भी श्रमणियों को वन्दना करने आयी हुई श्राविकाओं की तरह वहाँ रहकर बालक को खिलाने लगी। वह सोचती थी कि जब गुरुदेव पधारेंगे तो कर्जदार से प्राप्ति की तरह अपने पुत्र को ग्रहण कर लूँगी।
____ वज्र जब तीन वर्ष का हुआ, तो गुरुदेव सपरिवार वहाँ पधारे। सुनन्दा ने गुरु से अपने पुत्र की याचना की। गुरुदेव ने कहा - हे विवेकिनी! तुम्हारा यह कहना कैसे उचित हो सकता है? दान देकर पुनः भाव से पश्चात्ताप करना भी योग्य नहीं है, तो फिर पुनः प्राप्त करने की इच्छा करना कैसे योग्य है? साधुओं के बिना माँगे ही तुमने इसे दिया था। और मुनियों ने भी साक्षीपूर्वक पुनः न लौटाने की शर्त पर इस बालक को ग्रहण किया था। यह सभी तुम कैसे भूल गयी? सुनन्दा ने कहा - मैं भूली नहीं हूँ। किन्तु इसके रोने से उद्विग्न होकर अज्ञानतापूर्वक ही मैंने यह सब किया है।
उनके इस प्रकार के विवाद से लोगों ने कहा - इस वाद का निर्णय राजा के बिना नहीं हो सकता। तब सुनन्दा नागरिकों व स्वजनों के साथ राजा के पास आयी। गुरुदेव भी समस्त संघ से घिरे हुए वहाँ गये। राजा का उचित सत्कार करके सुनन्दा बायीं तरफ बैठी व दाहिनी तरफ आर्य सिंहगिरि संघ युक्त होकर बैठे दोनों के विवाद को सनकर धर्म की तुला की उपमा वाले राजा ने मन से विचार करके सम्यग् निर्णय धारण किया। दोनों पक्ष के में वज़ को बैठाया जाय। जिसके बलाने से वह जिसके पास आ जाय उसी को पत्र दिया जायगा। दोनों ने यह बात स्वीकार कर ली, क्योंकि राजा के कथन का उल्लंघन कौन करे? लेकिन यह प्रश्न खड़ा हुआ कि पहले बालक को कौन बुलाये? पक्षपात रहित राजा ने तत्क्षण कहा कि सर्वत्र पुरुष मुख्य है। अतः पहले गुरुदेव बुलायेंगे।
यह सुनकर सुनन्दा के पक्षवाले नागरिकों ने कहा - देव! साधुओं के चिर संसर्ग से यह उन्हीं में स्नेहवान् है। पति एवं पुत्र रहित यह माँ क्या अनुकम्पा का स्थान नहीं है? तब करुणायुक्त राजा ने भी यह बात मान ली। राजा के द्वारा आदेश मिलने पर सनन्दा ने हर्षोल्लासपर्वक अपने मनुष्यों द्वारा खेलने व खाने का बहुत सारा सामान मँगवाया। फिर राजा की परिषद के मध्य वज्र को समस्त रत्नों के सार की तरह बिठाया गया। सनन्दा ने दोनों भुजाओं को फैलाकर खुश होकर सुधा-सिक्त वाचा द्वारा सुन्दर स्नेह का अभिनय किया। आओ! आओ! वत्स! मेरी गोद को अलंकृत करो। पभा के प्रद्युम्न की तरह तथा इन्द्राणी के पुत्र जयदत्त की तरह मेरी गोद में
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