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सम्यक्त्व प्रकरणम्
वज्र स्वामी की कथा का योग है। अतः सचित्त या अचित्त जो भी मिले, वह सभी बिना संशय के मेरी आज्ञा से ग्रहण कर लेना।
वे दोनों मुनि सुनन्दा के घर की ओर आये। उसके समीप ही रहने वाली स्त्री ने शीघ्र ही उसके घर आकर कहा - प्रिय सखी! तेरे पतिदेव आये हैं उनका पुत्र उन्हें ही अर्पित कर दो। इसकी देखभाल तुम अकेले कैसे करोगी? खेदखिन्न हुई सुनन्दा ने भी पुत्र हाथ में लेकर अपने घर आये मुनि से कहा-मैंने इसे छः मास तक बड़े ही कष्ट से पाला है, अब आप इसे ग्रहण करें। इसने मुझे बहुत सताया है। जन्म से लेकर आज तक इसने रोना नहीं छोड़ा। इसके जैसे पुत्र की अपेक्षा तो पुत्र नहीं होना ही श्रेष्ठ है। कहा भी है -
अञ्जनेनाऽपि किं तेन चक्षुः स्फोटयतीह यत् । ऐसे अंजन से क्या? जो आँखों को ही फोड़ डाले।
आर्य धनगिरि ने भी कहा - ठीक है। मैं अपने पुत्र को ग्रहण कर लूँगा। पर बाद में तुम्हें पश्चात्ताप होगा। तुम्हारे खुद के द्वारा दिया हुआ यह पुत्र तुम्हें फिर वापस नहीं मिलेगा, अतः तुम एक बार सोच लो। उसने कहा - हे मुनि! मुझे कुछ नहीं सोचना है। मैंने यह आपको दे दिया है। उस समय उसके परिजन, पड़ोसी आदि भी कहने लगे - हे मुनि! देर मत करो। आपके द्वारा इस बालक को ग्रहण करने पर सुनन्दा भी प्रसन्न होगी कि इसने अपनी निधि को एक अच्छे स्थान पर स्थापित कर दिया है। देखो! तुम्हारे पुत्र ने इसकी क्या स्थिती कर दी है। यह चर्म व अस्थियों का ढाँचा मात्र रह गयी है। भूख लगने पर यह खाने नहीं देता और नींद आने पर सोने नहीं देता।
तब उसके सभी परिजनों की साक्षी से उसके द्वारा अर्पित पुत्र को मुनि ने पात्र में बाँध लिया। उस बालक ने भी शीघ्र ही रोना बन्द कर दिया। संसार में रहे हुए भय के दूर होते ही साध्य की सिद्धि से वह प्रमुदित हो गया। तब वे दोनों मुनि सचित्त की भिक्षा लेकर गुरु-आज्ञा का विचार करते हुए गुरु के पास आये।
निधान के कलश की तरह उस बालक के अत्यधिक भार से मनि के हाथ के कोहनी तक के भाग को नीचे झका हआ देखकर गरुदेव ने धनगिरि आर्य से कहा - मनि! अत्यधिक भार के परिश्रम से आयी हई स्वेद-बिन्दओं से आर्त दिखायी देते हो। अतः उस भार को वहन करने के लिए गरुदेव ने हाथ फैलाये। तब धनगिरि ने पात्र की झोली में बाँधे हुए शिशु को देवदुष्य वस्त्र से देवकुमार की तरह बाहर निकाला। फिर प्रयत्नपूर्वक रत्न की तरह गुरु को अर्पण किया। गुरुदेव के करकमल भी उसके भार से झुक गये। झुके हुए हाथों से विस्मित होते हुए गुरु ने मुनि से कहा - अहो! वज्र जैसा भारी यह कैसे उठाकर लाये? तब उसके अति पुण्यवान् पात्र की प्राप्ति से आनंदित हुए ऐसे गुरुदेव ने उसी समय उस बालक का नाम वज्र रखा। यह पुण्यवान महान प्रवचन धारी होगा। अतः चिन्तामणि रत्न की तरह आदरपूर्वक प्रयत्न से इसकी रक्षा करनी चाहिए।
तब सिंहगिरी आचार्य ने वृद्धावास में स्थित अपनी साध्वियों की शय्यातरी को बुलाकर उस वज्र-शिशु की कार्य चिन्ता की अधिकता से उस बालक को उसे अपने सर्वस्व की तरह पालने के लिए अर्पित किया। फिर गुरुदेव शिष्य परिवार सहित अन्यत्र विहार कर गये। क्योंकि -
मुनीनां शकुनीनां च न यदेकत्रचारिता । अर्थात् मुनियों व पक्षियों का निवास एक जगह रहने का नहीं होता।
वह शय्यातरी भी उस बालक की अपने पाप-पुत्र से (स्वयं के पुत्र से) भी ज्यादा धर्म-पुत्र की नित्य पालना-लालना करने लगी। सभी शय्यातरीजनों ने उस बालक का उपचार गुरुओं के बहुमान से गर्वपूर्वक किया। श्राविकाओं द्वारा एक हाथ से दूसरे हाथ में दिये जाते हुए, वह पालने में अथवा डोली में बहुत समय तक नहीं रह पाता था। बुलाने पर वह बोलता था, खेलने वालों के द्वारा खेलाया जाता था। बहुत बड़े कुटुम्ब पति पुत्र आदि युक्त स्त्री की तरह शय्यातरी को दिन बीतने का ज्ञान ही नहीं होता था। वह बालक भी परिणाम से वय से बड़ा
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