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वज्र स्वामी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
हूँ। यह कहकर आकाशचारी की तरह आकाश मार्ग से उड़कर प्रभु क्षण भर में क्षुद्र हिमवत् पर्वत पर गये। गंगासिन्धु नदी की तरह प्रवाहित मद-निर्झर वाले, किन्नरियों के गीतों की तरह बहती हुई मधुकरों की ध्वनि से युक्त, समृद्ध भूमि के बहाने से, विविध वर्णों से चित्रित, सैकड़ो गायों से युक्त, अद्भुत हाथियों की गर्जना वाले, रुद्राक्ष, भोज, सुर-पुन्नाग तगर, आदि वृक्षों से युक्त, उठी हुई कांति वाले, उत्तम ध्वज से शोभित पर्वत पर बने हुए योद्धा के समान हिम पर्वत पर बहती हुई हवा के बीच एक सुन्दर आयतन को देखा। तब उस सिद्धायतन में जाकर शास्त्र श्रुत (दर्शित) अर्हत्-प्रतिमा को देखकर प्रभु ने स्वयं मुदित होते हुए वन्दना की। नर्तकों के समान कल्लोल करती हई नाचती हई सरोजिनी को देखा, मानो उसे देखने के लिए समीर भी मन्थर गति से बह रहा है। उस सरोजिनी के सहस्रपत्र सुगन्ध रूपी दलिका से निर्मित की तरह संपूर्ण जल को सुवासित बना रहे थे। जल के महान निधान रूपी कुम्भ के समान पद्म हद में श्रीदेवता के घर में विस्तृत श्रृंगार धारिणी कमलिनी के पास प्रभु आये। उस समय पभ-हृद की अधिष्ठात्री श्री नाम की देवी जिन अर्चना के लिए, उस सरोजिनी को लेकर चैत्य में जा रही थी। वज्र ऋषि को देखकर शीघ्र ही भक्ति युत् प्रणाम करके कहा - हे भगवान्! मुझे अनुगृहीत कीजिए। कार्यादेश कीजिए। धर्मलाभ की आशीष देकर भगवान् ने कहा - अभी यही आदेश है कि यह पद्म मुझे अर्पित करो। तब श्री ने वह सहस्रदल प्रभु को समर्पित कर दिया। स्वामी! और भी आदेश कीजिए मैं आपकी चरणकिंकरी हूँ। बस! इतना ही कार्य है - यह कहकर स्वामी शीघ्र ही लौटकर आकाश मार्ग से हुताशन-वन को पुनः
आये। बीस लाख पुष्पों को उस पिता मित्र ने उपहार स्वरूप भेंट किया। प्रभु ने वहाँ देव-विमान की तरह एक विमान की रचना की। श्री देवी द्वारा अर्पित सहस्रदल कमल उसके अन्दर रखा। उसके पास में पुष्प बिखेर दिये। अपने मित्र देव जृम्भक देवों को वज्र ऋषि ने याद किया। स्मृति मात्र से ही चक्रवर्ती के चक्ररत्न की तरह वे सभी वहाँ आ गये। उस कमल रूपी छत्र के नीचे प्रभु विराजे। उन व्यन्तर देवों के द्वारा आगे-आगे चलते हुए संगीत गाया जाने लगा। जृम्भक देवों ने अपने-अपने विमान से वज्र स्वामी के विमान को घेर लिया। फिर देवों द्वारा गुणों का बखान किये जाते हुए वज्र मुनि इन्द्र की तरह चले।
निमेष मात्र में आकाश मार्ग से चलते हुए श्री वज्र महामुनि पुरी नामकी नगरी में आये। विमानों के समूह को देखकर संभ्रान्त होते हुए सौगतों ने कहा - निश्चय ही बुद्ध की अर्चना करने के लिए देव आये हैं। अहो! बुद्ध के प्रतिहार्य निश्चय ही अनुपम है। इस प्रकार उनके बोलते-बोलते ही विमान उनके विहार को उल्लंघनकर आगे बढ़ गये। उन अद्भुत विमानों के समूह के साथ वज्र स्वामी अर्हत् चैत्य में गये। श्रेय प्राप्त मनुष्यों को मानो उन्होंने स्वर्ग दिखाया हो। तब बौद्धों ने विषाद रूपी तमस् से आवृत होकर विचार किया कि हमारे द्वारा अर्चना का निषेध किये जाने पर भी अब देवों ने चैत्य अर्चना की है। तब जृम्भक देवों द्वारा प्रत्येक तीर्थकर चैत्य घरों की महिमा वहाँ कुछ समय तक अतिशायी की गयी। देवों द्वारा कृत अर्हत्प्रभावना को देखकर राजा ने सौगत धर्म छोड़कर प्रजा सहित आर्हत धर्म स्वीकार किया। संघ का पराभव हरने के लिए वज्रस्वामी ने सावध भी यह कार्य किया - यह उनकी शासन प्रभावना थी।
इस समय वे वज्रस्वामी पुरी नगरी में ही विराजते हैं। अतः हे वत्स! दृष्टिवाद पढ़ने के लिए तुम उनके पास जाओ। तब अपने गुरु तोसलिपुत्र की अनुज्ञा से भगवान् आर्यरक्षित जाने के लिए प्रवृत्त हुए। चलते हुए रास्ते में उज्जयिनी पुरी को प्राप्त हुए। वहाँ पर अति ज्येष्ठ भद्रगुप्त नामक गुरु को वन्दन किया। उन्होंने भी आर्यरक्षित को प्रज्ञा रत्न का महासागर जानकर प्रेमपूर्वक चिर-दृष्ट आत्मज की तरह व्यवहार किया। अन्धकूप के समान इस मिथ्यात्व से बाहर निकालने में हे वत्स! तुम्हारे सिवाय अन्य कौन समर्थ हो सकता है? हे वत्स! मेरे अनशन रूपी जहाज द्वारा आयुशेष रूपी समुद्र से तिराने में तुम निर्यामक बनने के योग्य हो। 'ऐसा ही होगा' - इस प्रकार
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