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नन्दीषेण की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् उसके घर में गृहस्थ वेष धारण करके रहने लगा। कितने ही काल तक उस वेश्या के साथ नन्दीषेण ने भोगों को भोगा। वह रोज जिनेश्वर वीर प्रभ तथा देवता की वाणी को याद करता था, जिन्होंने उस समय उसे प्रव्रज्या लेने से निषेध किया था। तब वह प्रतिदिन दस भव्यों को व्याख्या द्वारा प्रतिबोधित करके प्रव्रज्या के लिए प्रभु के पास भेजकर फिर भोजन ग्रहण करता था, अन्यथा नहीं। एक बार उसके कर्म क्षीण हो जाने के कारण नौ व्यक्ति तो प्रतिबुद्ध हो गये, पर दसवाँ अष्टक्क देश का व्यक्ति अंशमात्र भी प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। भोजन का समय हो जाने पर उस विलासिनी ने कहा - स्वामी! रसोई तैयार हो गयी है। अतः अब उठिये। यह सुनकर भी वह नहीं उठा तथा उसे प्रबोधित करते हुए बैठा रहा। उसने सोचा कि अभिग्रह पूर्ण हुए बिना भोजन कैसे करूँगा उस वेश्या ने पुनः कहा - नाथ! एक रसोई तो निरस हो गयी दसरी रसोई करवायी है। फिर पनः देर क्यों कर रहे हैं? नन्दीषेण ने कहा - क्या करूँ? आज दसवाँ व्यक्ति प्रतिबोधित नहीं हो रहा है। तब उस मूर्खा वेश्या ने गुस्से में आकर कहा - दसवाँ व्यक्ति आप खद ही बन जाइए, मर्खता को छोडिए। अब उठकर आकर भोजन ग्रहण करें। देर न करें। यह सनकर नन्दीषेण ने कर्म को भक्त जानकर वेश्या से कहा - अब भोजन नहीं करना है। व्रत लेकर ही भोजन करूँगा। इस प्रकार उसी समय प्रभु-चरणों में जाकर अपने सर्व-दुष्कृत्य की आलोचना, निन्दा तथा गर्दा करके पुनः चारित्र ग्रहण करके प्रभ के साथ विहार करते हए व्रत का सम्यक पालन करके वे देवलोक में गये।
इस प्रकार नन्दीषेण भग्न - व्रती होते हुए भी सद्दर्शन में दृढ़ थे। दैवयोग से व्रतविलुप्त होने पर भी उस प्रकार से दूसरों को व्रत ग्रहण करवाया।
यह नन्दीषेण की कथा संपन्न हुई।।२७।।९५।। इसके [शुद्ध प्ररूपणा के विपर्यय में दोष बताते हैं - परिवारपूअहेऊ पासत्थाणं च आणुवित्तीए ।
जो न कहेइ विसुद्धं तं दुल्लहबोहियं जाण ॥२८॥ (९६)
परिवार तथा पूजा के निमित्त से जो पार्श्वस्थों का अनुसरण करके विशुद्ध रूप से धर्म स्वरूप नहीं कहता है अर्थात् विशुद्ध-खरतर, अति कठिन मार्ग को कहूँगा, तो कोई भी हमारी सम्भाल नहीं करेगा, कोई भी हमारी पूजा नहीं करेगा। अतः लोगों को कोमल मार्ग कहता है, उसे दुर्लभ - बोधि जानना चाहिए।।२८॥९६।
यहाँ शंका होती है कि अगर इस प्रकार महान् दोष है, तो फिर कैसे कहना चाहिए? इसे बताते हैं - मुहमहुरं परिणइ-मंगुलं च गिण्हंति दिति उदएसं । मुहकडुयं परिणइसुंदरं च विरला च्चिय भणन्ति ॥२९॥ (९७)
बोलने में मधुर और परिणति में असुन्दर उपदेश को तो सभी देते व ग्रहण करते हैं, पर मुख में [प्रथम] कटुक और परिणति में सुन्दर उपदेश तो विरले ही कहते हैं।।२९।।९७।।
अब यथावस्थित हितवादी वक्ता के परोपकार को कहते हैं - भवगिहमज्झम्मि पमायजलणजलियंमि मोहनिदाए । उट्ठवइ जो सुयंतं सो तस्स जणो परमबन्थू ॥३०॥ (९८)
प्रमाद रूपी अग्नि से जलते हुए भव रूपी घर में मोह रूपी निद्रा में सोये हुए प्राणी को जो उठाता है, वह उसका परम बन्धु है।
इसके दृष्टान्त रूप से अभयकुमार के द्वारा आईक कुमार को जगाने की तरह है। किस प्रकार अभय कुमार के द्वारा आईक कुमार को प्रमाद रूपी अग्नि से जलते हुए, भवरूपी घर के अन्दर मोह निद्रा में सोये हुए को जागृत किया? यह कहानी के माध्यम से कहा जाता है। वह आर्द्रककुमार की कथा इस प्रकार है -
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