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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आर्द्रककुमार की कथा वहाँ दान देते हुए भिक्षा के हेतु आये हुए मुनियों को प्रतिलाभित करके उनके पाँवों पर चिह्न देखती थी।
एक बार भाग्य योग से बारह वर्ष बाद आईक कुमार मुनि वसन्तपुर नगर में पुनः पधारें। कर्मों द्वारा लाये गये के समान वे वहाँ भिक्षा लेने के लिए आये। तत्क्षण उनके चिह्न को देखकर श्रीमती ने उन्हें पहचान लिया। तब वह उतावली होकर जल्दी से उठकर संभ्रमित होते हुए बोली - हे नाथ! चिरकाल से दिखायी दिये हैं। उस समय तो कर्जदार की तरह गायब हो गये थे। कृपालु होते हुए भी नाथ! आप मुझ पर अकृपालु कैसे हो गये? आपके द्वारा त्यक्ता मैं इतने दिनों तक आपके ही आने के इन्तजार में बैठी हूँ। वह आशा आज फलित हुई। मेरे दिवस फिर गये हैं, क्योंकि मुझ अनाथ को सनाथ बनाने के लिए मेरे नाथ आ गये हैं। यह सुनकर श्रेष्ठि, श्रेष्ठिपुत्र, परिजन आदि सभी ने राजा के अंगरक्षकों की तरह आकर मुनि को चारों तरफ से घेर लिया। राजा भी कौतुक से उसे देखने के लिए आया कि ऐसा वह कौन है, जिसके वरण में देवता ने भी रत्नवृष्टि की। उसे देखकर विचार किया कि निश्चय ही यह साक्षात् कामदेव हैं। श्रीमती के अनुराग - स्थान को देवता ने भी उचित ही कहा है। मुनि ने उनसे कहा - वह मैं नहीं हूँ। मेरा व्रत नष्ट मत करो। श्रेष्ठि पुत्री ने कहा - आप वही हैं। मैंने चिह्न से पहचान लिया है। तब राजा ने कहा- हे मुनि! यहाँ कुछ भी आपके अयोग्य नहीं है। यौवन को सफल करके बाद में पुनः व्रत स्वीकार कर लेना। क्या आप केवल सूक्ष्म जीवों की ही रक्षा करते हैं, स्थूल जीवों की रक्षा नहीं करते? अब आपके द्वारा यह त्यागी गयी, तो निश्चित ही अपने प्राण दे देगी। किसी ने कहा - हे मुनि! तुम्बक छोड़कर कुटुम्ब को ग्रहण करो। पात्र को छोड़कर हमारे साथ नातृ संबंध अर्थात् नाता जोड़ो। मुनि पलायन के उपाय को नहीं देखकर दुःखित होते हुए देवता के वाक्य का स्मरण करके उनके वचनों को मान लिया। तब उनके आग्रह से उसने श्रीमती के साथ परिणय-सूत्र जोड़ लिया। कहा भी है -
नाऽदत्वा स्वफलं कर्म येन याति निकाचितम् । अर्थात् अपना कर्मफल दिये बिना निकाचित कर्म नष्ट नहीं होते।
श्रीमती के साथ विषयों का भोग करते हुए आईककुमार के संपूर्ण संपदा का पात्र रूप पुत्र पैदा हुआ। क्रम पूर्वक घर में उसके चलने में समर्थ होने पर तथा कुछ-कुछ अस्पष्ट शब्दों का उच्चारण करने पर आर्द्रककुमार ने श्रीमती को कहा - अब तुम्हारे अद्वितीय पुत्र हो गया है। मुझे छोड़ दो, जिससे तुम्हारी आज्ञा से मैं चारित्र ग्रहण कर सकूँ। बिना उत्तर दिये उसने कुछ सोचकर कहीं से भी सामग्री लाकर सूत कातना प्रारम्भ किया। तब पहले से सिखाया हुआ पुत्र माता को इस प्रकार बोला - हे माँ! तुम भी अन्य जनों की तरह यह बुरा कार्य क्यों करती हो? उसने कहा - बेटा! तुम्हारे पिता व्रतार्थी है। अतः कभी भी चले जायेंगे। तब पति के अभाव में स्त्रियों का यही भूषण है। उसने कहा - माँ! मेरे पिता कहाँ जायेंगे? मैं उन्हें रोक लूँगा। इस प्रकार बोलते हुए माँ के हाथ से चरखा छीनकर तत्क्षण उन तन्तुओं से किसी कठिन श्रृंखला की तरह पुत्र ने अपने पिता को साक्षात् मोह की तरह लपेट दिया। फिर माँ से कहा - अब मत डरो। मैंने पिताजी को बाँध दिया है। अब ये कहीं नहीं जायेंगे। उसके पिता ने कहा - वत्स! मैं निश्चित ही बांधा गया हूँ। तुम्हारे द्वारा जितने लपेटे सूत्र के दिये गये हैं, उतने ही वर्ष तक मैं तुम्हारे द्वारा बंधा हुआ नहीं जाऊँगा। वे लपेटे बारह थे, अतः आईक कुमार बारह वर्ष तक घर में रहे। अवधि पूर्ण होने पर एक दिन रात के अंत में जागृत होकर सोचा कि-भवोदधि को पार करने के लिए पोत की तरह व्रत को प्राप्तकर भी मैंने मूद होकर प्रमाद में मग्न होकर उसे छोड़ दिया। पहले भी भग्नचारित्री होकर मैंने अनार्यत्व को प्राप्त किया था। अब सर्वथा व्रत भंग करके मैं किस गति में जाऊँगा। जो जिनेश्वर के वचन नहीं जानते हैं, उनकी अवस्था शोचनीय है। पर -
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