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सम्यक्त्व प्रकरणम्
गुरुकुलवास का महत्व "गोयमा! एगंतसो पावे कम्मे कज्जइ, नत्थि से कावि निज्जरति।
एवं तर्हिदीनादीनां दानं न देयमित्यापन्नम्, असङ्गं चैतदर्हताऽपि सांवत्सरिकदानस्य पात्राऽपात्रविचारपरिहारेण प्रवर्तितत्वात्। सत्यम्, मोक्षार्थं दानमाश्रित्याऽयं विधिरुक्तः। कृपादानं तु न क्वाऽपि जिनैर्निवारितम्।।"
गौतम! एकान्त पाप कर्म करता है। उसको कुछ भी निर्जरा नहीं होती।
इस प्रकार तो दीन आदि को दान नहीं देना चाहिए-यह सिद्ध होता है, पर यह तो असंगत है। क्योंकि अरिहंत आदि भी पात्र-अपात्र के विचार का परिहार करके सांवत्सरिक दान में प्रवृत्त होते थे। सत्य है, मोक्ष के लिए दान को आश्रित करके यह विधि कही गयी है। (अनुकंपा) कृपा दान तो किसी भी जिनेश्वर द्वारा निवारित नहीं है। कहा भी है -
सव्वेहिं पि जिणेहिं दुज्जयजियरागदोसमोहेहिं । सत्ताणुकम्पणट्ठा दाणं न कहिं चि पडिसिद्धं ॥१॥
अर्थात् दुर्जित राग, द्वेष, मोह को जीतने वाले सभी जिनेश्वरों ने प्राणीयों की अनुकम्पा के लिए कहीं भी दान का निषेध नहीं किया है।
___ धर्म सुनना श्रवण है। जिसके माध्यम से भवोदधि के पार सुखपूर्वक उतरा जाय, वह सुतीर्थ है। उसमें अर्थात् सुगुरु के पास में - यह अर्थ हुआ। सत्संगति अर्थात् सुसाधु की सेवा है। ये सभी शिवलोक के मार्ग है - यह इन दो रूपकों द्वारा बताया गया है।।४१-४२।।१०९-११०।।
इस प्रकार अनेक प्रकार से सन्मार्ग की प्ररूपणा किये जाने पर भी रागादि से आक्रान्त चित्तवाले बहुत से जीवों के उन्मार्ग-गम्यता को देखकर खेदपूर्वक रागादि की महत्ता को कहते हैं -
रागोरगगरलभरो तरलइ चित्तं तवेइ दोसग्गी। कुणइ कुमग्गपवित्तिं महामईणं पि हा मोहो ॥४३॥ (१११)
राग रूपी सर्प विष से भरा हुआ द्वेष रूपी अग्नि से चपल चित्त रूपी मणि को तपाता है। महामतिसंपन्न होते हुए भी मोह के वशीभूत होकर कुमार्ग में प्रवृत्ति करता है। यह महामोह का साम्राज्य है।।४३।।१११।।
और ऐसा होने पर - अन्नाणंधा मिच्छत्तमोहिया कुग्गहुग्गहगहिया । मगं न नियंति न सद्दहति चिटुंति न य उचियं ॥४४॥ (११२)
सन्मार्ग के अनावलोकन से अज्ञान से अन्धे हुए, मिथ्यात्व से मोहित अर्थात् अन्धा भी किसी मनोविज्ञान के द्वारा मार्ग को पार नहीं करता है? वैसे ही मिथ्यात्व रूपी मोह से दिग्मूढ भ्रान्त चित्तवाला वह भी कदाचित् समयान्तर से वह सचेतन हो जावे! इसी का प्रत्युत्तर कहा है। वह क्रूर ग्रह से ग्रसित होने से मोक्ष मार्ग के अनुरूप अर्थात् उचित मोक्षमार्ग को न देखता है, न श्रद्धा करता है, न प्रवृत्ति करता है। अतः ये तीनों (उपरोक्त कहे गये) मोक्षमार्ग के अनुरूप हैं।।४४|११२।।
इस प्रकार मोक्षमार्ग को जानता हुआ कोई सर्वविरति को स्वीकार करता है और कोई उसमें अशक्त होने से केवल उसकी भावना ही भाता है। जैसे कि -
ता कइया तं सुदिणं सा सुतिही तं भवे सुनक्खत्तं । जंमि सुगुरुपरतंतो चरणभरधुरं धरिस्समहं ॥४५॥ (११३) कब वह सुदिन, सुतिथि, सनुक्षत्र होगा, जब मैं सुगुरु को परतन्त्र रहकर चारित्र रूपी धुरा को धारण करूँगा। यहाँ परतन्त्र का मतलब गुरु की आज्ञा में रहकर प्राप्त की हुई सर्व सम्पदा है।
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