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गोचरी के दोषों की व्याख्या
सम्यक्त्व प्रकरणम् हो गया हो, उसे विभूषा से क्या मतलब?
विभूषा करता हुआ साधु चिकने कर्म बाँधता है, जिससे कठिनाई से उतरने योग्य (पार होने योग्य) घोर संसार सागर में भ्रमण करता है।
यहाँ आद्य षटक् द्वय से मूलगुण तथा अकल्पादि षटक् से उत्तरगुण कहे गये हैं।।२।।११६।। अब अकल्प-स्थापना कल्प का वर्णन करते हैं - पिण्डं सिज्जं यत्थं पत्तं चारित्तरखणट्ठाए ।
अकप्पं यज्जिाज्जा गिण्हिज्जा कप्पियं साहू ॥३॥ (११७) साधु को पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्रादि चारित्र की रक्षा के लिए अकल्पनीय को छोड़कर कल्पनीय को ग्रहण करना चाहिए। यहाँ शय्या का मतलब वसति या उपाश्रय से हैं। अकल्पनीय का अर्थ आधाकर्म आदि दोष से दूषित जानना चाहिए।।३।।११७॥
यहाँ जो आधाकर्मादि दोष से युक्त पिण्डादि को कहा, उसी को कहने के लिए प्रस्तावना को कहते हैं - जीया सुहेसिणो तं सियंमि तं संजमेण सो देहे ।
सो पिंडेण सदोसो सो पडिकुट्ठो इमे ते य ॥४॥ (११८)
जीव सुख के अभिलाषी हैं और वह एकान्तिक सुख शिव में है। वह शिव संयम से प्राप्त होता है। संयम देह में है, वह देह पिण्ड पर आधारित है। वह पिण्ड आधाकर्म आदि दोष से दूषित होने पर सभी जिनेश्वरों द्वारा निषिद्ध है।।४।११८।। .
इन्हीं पिण्डदोषों के विभाग से संख्या बताते हैं - सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाए दोसा उ । दस एसणाइ दोसा बायालीसं इइ हति ॥५॥ (११९) सोलह उद्गम के, सोलह उत्पाद के तथा दस एषणा के ये ४२ दोष पिण्ड के कहे गये हैं।॥५॥११९।। उद्गम के सोलह दोष इस प्रकार है -
आहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहडियाए पाओअरकीय पामिच्चे ॥६॥ (१२०) परियट्टिए अभिहडभिन्न मालोहडे इ य ।
अच्छिज्जे अणिसट्टे अज्झोयर एय सोलसमे ॥७॥ (१२१) इनका अर्थ इस प्रकार है - १. यति को उद्देश्य करके छः काय के जीवों के आरम्भ - पूर्वक जो पकाना-पकवाना आदि किया जाता है,
वह 'आधाकर्मी दोष है। २. पूर्व में बनाये हुए चावल, मोदक आदि में साधुओं के उद्देश्य से दही आदि द्वारा अथवा गुण-पाक आदि ___ द्वारा सुधारना, संस्कृत करना औद्देशिक दोष है। ३. थोड़ी सी अशुचि की तरह आधाकर्मी आहार के अंश मात्र से विशुद्ध अन्नादि की पवित्रता को अपवित्र ___ करना पूतिकर्म है। अर्थात् शुद्ध आहार में आधाकर्मी आहार का अंश मिलाना। ४. अपने लिए तथा साधु के लिए शुरु से ही मिश्र बनाया हुआ आहार मिश्रजात है। ५. साधु के लिए कुछ काल तक दूध आदि रखना स्थापना दोष है। ६. थोड़ा भी उपहार अर्पित करना प्राभृतिका दोष है। गुरु आदि आये हैं अथवा आयेंगे - इस प्रकार गुरुओं
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