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सम्यक्त्व प्रकरणम्
माया पिण्ड की कथा
दोनों सदाचार रूपी पवित्रता से निवास करना । नित्य नये-नये श्रृंगारों द्वारा अंगों को अलंकृत करके सदा उसके विचारानुरूप अभीष्ट देवता की तरह उसको ध्याना। उस पिता की शिक्षा को प्राप्तकर दोनों ने विशेष रूप से उसी में तन्मय होकर उसी के चित्त में सर्वदा अपनी आराधना शुरु कर दी।
एक बार उस नगर के राजा सिंहरथ ने नट को बिना स्त्री का पात्र लिये नाटक करने की आज्ञा दी। तब आषादाभूति उन दोनों प्राण - वल्लभाओं को छोड़ करके नट समूह से युक्त होकर राज भवन में गया । नट पुत्रियों ने जाना कि हमारे पति चिरकाल तक नहीं आयेंगे । अतः इच्छानुसार अतिशय आकंठ शराब का सेवन किया। फिर वासगृह के अन्दर ही वे दोनों भूमि पर लौटने लगी । मद के प्रभाव से उनके केश बिखर गये थे। कपड़े भी अस्त व्यस्त होकर भूमि पर लटक रहे थे। चारों ओर शराब की तीव्र दुर्गन्ध फैल गयी, जिससे मक्खियाँ भिनभिनाने लगी। उन दोनों ने मृत की तरह हाथ-पाँव इधर उधर फैला दिये थे।
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इधर राजा के सामने किसी अत्यावश्यक कार्य से नाटक का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। अतः आषादाभूति लौटकर अपने घर आ गया। वास- घर में प्रविष्ट होते ही मद्य की दुर्गन्ध से बाधित हुआ। सामने पड़ी हुई अपनी प्रियाओं की उस दशा को देखा। उसी समय उसे भव - वासना से वैराग्य उत्पन्न हो गया । उसने विचार किया. हे जीव! तुमने करोड़ों भवों में भ्रमण किया है। स्वर्ग व अपवर्ग के हेतु रूप, पूर्व में कभी प्राप्त नहीं किये हुए चारित्र प्राप्त करके भी जिसके लिए तुमने उसे छोड़ दिया, उनके सर्व अशुचि के निधान रूप स्वरूप को देखो । अयोग्य तो है ही, एकान्त रूप से असार भी है। यह तुम्हारें ही अज्ञान का अपराध है कि तुम इनमें मोहित हुए। मोक्ष मार्ग छोड़कर तुम नरकमार्ग पर चल पड़े। आज तक तुम जिन्हें अनुकूल मानते थे, भवितव्यता से उन्हींके द्वारा आज इस प्रकार का रूप दिखाया गया है। अब इतना जान लो कि जब तक बुढ़ापा बाधित न करे, रोग पीड़ित न करें, जब तक मृत्यु दूर है, तब तक अभी भी तुम स्वहित के लिए प्रयत्न करो । नष्ट हुआ भी सुभट वापस लौटकर अराति पर जय प्राप्त करता है।
इस प्रकार की भावना भा-भाकर वैराग्य के संग से घर से निकलते हुए उसे नट ने किसी भी प्रकार से देख लिया। चित्त देखने में दक्ष उस नट ने उसके आशय को जानकर शंकित होते हुए तुरन्त उसके वास घर में जाकर देखा। अपनी पुत्रियों को उस अवस्था में देखकर विषाद ग्रस्त होते हुए बोला- हे पापिनियों ! क्या किया ! तुम्हारा पति विरक्त होकर जा रहा है। उसके वचन सुनकर शीघ्र ही उनका मद उतर गया। वे संभ्रमित हो गयी । तात को पूछने लगी - वह हमारा वल्लभ कहाँ है? कहाँ जाता है? नट ने कहा- यह जानने से क्या? मैंने तो उसके आशय को जान लिया है। तुमसे उसे जो विरक्ति हुई है, वह युगान्त में भी निवृत्त नहीं होगी। किन्तु उसके पाँव पकड़कर कहो - नाथ! यद्यपि आप विरक्त हो गये हैं, फिर भी हमारी निर्वाह - चिन्ता करके हमारे स्वार्थ के लिए रुको।
वे दोनों दौड़कर उनके पाँवों में गिरकर कहने लगीं - हे नाथ! हमें अनाथ छोड़कर आप करुणानिधि कहाँ जाते हैं? आज तक मैं हमारा यह एक ही एक पाप हुआ है । अतः हे स्वामी! हमें क्षमा करें। क्योंकि -
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महान्तः क्षान्तिमन्तः स्युर्जने दोषाऽऽकरेऽपि यत् ।
महान् जन तो दोषों की खान वाले मनुष्य पर भी क्षमावान होते हैं।
हे हृदयेश ! एक बार लौट आओ। उसने कहा - • अब तो यह प्राणत्याग करने पर भी संभव नहीं है। जैसे हाथी विन्ध्यपर्वत को और शरु वन के सौन्दर्य को छोड़कर कदाचित् घास रहित ऐसे नीचस्थान पर चला जाय, तो क्या वे कभी उस स्थान पर प्रीति बाँधते है ? अथवा विन्ध्यपर्वत याद आते ही लौटते हुए उस हाथी को किसी के द्वारा वापस उस नीचस्थान पर लौटने को बाधित किया जा सकता है? मैं भी इतने दिन नीचस्थान पर रहा। अब मुझे विन्ध्यपर्वत समान भागवती प्रव्रज्या पुनः स्मृत हो गयी है। इसलिए हाथी के समान मुझे भी लौटने से नहीं
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