Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 278
________________ माया पिण्ड की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् व्रत को ग्रहण कर लेने के कारण इन्हें यद्यपि धन से कोई प्रयोजन नहीं है, फिर भी इस क्रिया द्वारा ये रसलोलुपी दिखायी देते हैं। रस में गृद्ध व्यक्ति प्रायः स्निग्ध आहार द्वारा मनाये जाते हैं। कामदेव भी स्निग्ध आहार द्वारा अग्नि में घी की आहुति की तरह भड़क उठता है। फिर मेरी दोनों पुत्रियों द्वारा हास-विलास आदि तन्तुओं द्वारा इसे मोड़कर बाँध लेने पर यह मेरे वश में हो जायगा। इस प्रकार विचारकर नट ने घर से बाहर निकलते हुए उस साधु को श्रावक की तरह भक्ति युक्त होकर ससम्मान बुलाया। फिर मोदकों से भरा संपूर्ण थाल अत्यधिक उच्च भावना से कल्पवृक्ष के फलों की व्यूह रचना द्वारा उन्हें लाभान्वित किया। फिर इस प्रकार अभ्यर्थना की - भगवन्! कृपा करके मेरे आवास में आप प्रतिदिन भिक्षा के लिए आये। फिर उस साधु के जाने के बाद उनका नट - विज्ञान संपूर्ण रूप से विस्मय सहित अपनी वल्लभा को बताया। उसने भी अपना अभिप्राय अपने पति को दर्शाया - आपने अच्छा उपचार किया। आपका यह उपचार ही कार्यकारी होगा। रति-प्रीति के समान अपनी दोनों पुत्रियों को भी कहा कि तुम दोनों इस मुनि को इस प्रकार क्षोभित-आकर्षित करो जिससे शीघ्र यह तुम्हारे वश में हो जाय। नटी भी नित्य अत्यधिक आदर के साथ वशीकरण औषधि की तरह मोदक आदि के द्वारा उस मुनि का उपचार (आकर्षण) करने लगी। दोनों पुत्रियाँ भी कटाक्ष आदि काम-अस्त्रों से विवेक रूपी कवच से रहित उन मुनि को खींचने के लिए घायल करने लगीं। वह मुनि भी व्रत रूपी प्राणों से नष्ट हुए की तरह उनके साथ मर्यादा रहित परिहास करने लगा। एक दिन आलिंगन आदि क्रियाओं में अभिलाषी जानकर काम ग्रह में आविष्ट करने के लिए नट - पुत्रियों ने उससे कहा - हे सुभग अग्रिम! अगर आपका हममें कोई प्रयोजन है, तो परिव्रज्या का त्यागकर अभी हम दोनों के साथ परिणय करें। चारित्रावरणीय कर्म के उदय से, कुल के अभिमान से नष्ट, श्रुत रत्न से विस्मृत मुनि ने उनके रूप - यौवन में आसक्त होकर उनके वचनों को स्वीकार कर लिया। एकान्त में गुरु से अपना अभिप्राय कहा। यह सुनकर गुरु ने विचार किया - अहो! काम की लीला अपरम्पार है। धिक्कार है इस कामदेव को कि इस काम लीला ने ऐसे महात्मा का भी तत्क्षण सर्वस्व हरण कर लिया। तब धर्मरुचि गुरु ने अमृत के समान वचनों से विषय आशारूपी विष के आवेग को हरने के लिए अनुकंपा पूर्वक कहा-तुम उत्तम गुरु के शिष्य हो। उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारा उत्तम श्रुतज्ञान है। हे वत्स! तुम्हारी ऐसी बुद्धि कैसे हुई? शील रूपी सलील को तुमने दुःपाल्य होते हुए भी चिरकाल तक पाला है। तपस्याओं से तुम तपे हो। तुमने परीषहों को जीता है। इस प्रकार के धर्मवीर होकर भी क्या तुम कामदेव द्वारा जीत लिये गये हो! भुजाओं से समुद्र पार करके भी तुम गाय के पाँवों से बने हुए खड्डे में समाने वाले पानी के परिमाण में क्यों डूबना चाहते हो? आषाढ़ाभूति ने भी गुरु को नम (आद्र) आँखों से कहा - प्रभु! मैं भी यह जानता हूँ, पर अभी मूद हो गया हूँ। महामोह रूपी साँप से ग्रसित प्राणियों पर क्या तीर्थंकरों का व्याख्यामन्त्र भी काम करता है? हे प्रभो! हजारों सूर्यों का उदय होने पर भी उल्लू तो अन्धा ही रहनेवाला है। उसी प्रकार हे प्रभो! मैं अर्हत् धर्म को जानता हूँ। फिर भी दुराशय वाला होकर आपकी चरणसेवा रूपी पुण्य से हीन बन रहा हूँ। हे पूज्य! मुझे अपने कर्म फल का पात्र बनने की आज्ञा दीजिए। तब उसका अत्यधिक आग्रह देखकर गुरु ने उपदेश दिया वत्स! मोक्ष रूपी वृक्ष के बीज रूप सम्यक्त्व में दृढ़ रहना। (और मांस-मदिरा का सेवन हो वहाँ मत रहना।) तब वह परिव्रज्या का त्याग करके नट के घर पर आया। सभी नटों का वह नाट्य शिक्षा गुरु बन गया। राजालोग उससे खुश होकर बहुत दान देते थे। उन धन के द्वारा उसने श्वसुर के घर को कुबेर के आवास की तरह बना दिया। तब प्रसन्न होते हुए नट ने अपनी दोनों पुत्रियों को शिक्षा दी - यह उत्तम प्राणी है। प्रयत्नपूर्वक इसकी परिचर्या करना। भाग्य योग से इसने किसी भी तरह अपना मार्ग त्याग दिया है, फिर भी हमारी थोड़ी सी प्रतिकूलता देखते ही शीघ्र ही यह विरक्त हो जायगा। अतः तुम अपेय का पान मत करना। अभक्ष्य का भक्षण मत करना। तुम 229

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