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सम्यक्त्व प्रकरणम्
शुद्ध प्ररूपक की व्याख्या ता आणाणुमयं जं तं चेय बुहेहिं सेवियव्यं । किमिह बहुणा जणेणं हंदि न से अत्थिणो बहुया ॥३५॥ (१०३)
जो आज्ञानुमत है अर्थात् आगम के अनुक्रम से आया हुआ अनुष्ठान है, वही बुधजनों द्वारा सेवन किया जाना चाहिए। यहाँ पर बहुत जनों से क्या?
अर्थात् बहुत जनों की प्रवृत्ति का आलम्बन लेने से क्या फायदा? क्योंकि प्रभु की आज्ञा के अनुगत रहे हुए धर्म के अर्थी, श्रेय के अर्थी अथवा मोक्षाकांक्षी बहुत नहीं होते। क्योंकि पूर्व में ही कहा गया है -
सम्प्रति बहवो मुण्डा अल्पाश्च श्रमणाः । वर्तमान में बहुत मुण्ड और श्रमण अल्प हैं।।३५।।१०३।।
इस प्रकार अनेक प्रकार से विधि मार्ग के समर्थन को सुनकर महा मोह से उपहत बुद्धिवाले जो बोलते हैं। उसको कहते हैं -
दूसमकाले दुल्लहो विहिमग्गो तंमि चेव कीरते । जायइ तित्थुच्छेओ केसिंची कुग्गहो एसो ॥३६॥ (१०४)
दुःषम आरे में विधिमार्ग दुर्लभ है अर्थात् भारे कर्मी जीवों के लिए कठिनाई से प्राप्त करने योग्य है। उसी काल में विधि मार्ग किये जाने पर तीर्थ का विच्छेद हो जायगा।।
ऐसा कितने ही कुग्रही लोग मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार बहुत लोगों के द्वारा विधिमार्ग का अनुष्ठान शक्य नहीं है। इसका खंडन करते हुए कहा गया है कि विवेकियों को कुग्रह नहीं करना चाहिए।।३६।।१०४।।
जम्हा न मुक्खमग्गे मुत्तूणं आगमं इह पमाणं । विज्जड़ छउमत्थाणं तम्हा तत्थेद जड़यव्यं ॥३७॥ (१०५) जिस कारण से आगम प्रमाण को छोड़कर छभस्थ मोक्षमार्ग में स्थित नहीं रहता है, उसी कारण से उसे मोक्ष मार्ग में यत्न करना चाहिए।।३७।।१०५।।
अब आगम में कही हुई संसार व मोक्ष मार्ग की संख्या को कहते हैं - गिहिलिंग-कुलिंगिय-दव्यलिंगिणो तिनिहुँति भवमग्गा ।
सुजइ-सुसावग-संदिग्गपक्खिणो तिलि मुक्खपहा ॥३८॥ (१०६)
गृहस्थ, पाखण्डी, पार्श्वस्थादि - ये तीनों संसार मार्गी हैं। द्रव्यलिंगि अर्थात् पार्श्वस्थ तो उभय भ्रष्ट होते हैं। सुयति, सुश्रावक, संविग्न पाक्षिक अर्थात् सुसाधुओं के पक्षपात से विचरण करनेवाले - ये तीनों मोक्षमार्गी हैं। ___ यहाँ शंका होती है कि मोक्ष मार्ग की द्विविधता पूर्व में कह दी गयी है। फिर अब मोक्ष मार्ग की त्रिविधता कहने से पूर्वापर विरोध नहीं होगा? नहीं। यह प्ररूपणा सत्य ही है, तृतीय मार्ग की अप्रधानता अर्थात् अल्पता होने से और कदाचित् होने से वहाँ वह अर्थात् पहले विवक्षा नहीं की गयी। यहाँ पर संसार मार्ग की विविधता का प्रस्ताव होने से उसका कथन करने से अविरोधी है। उसका लक्षण इस प्रकार जानना चाहिए। जैसे कि -
संविग्गपक्खियाणं लक्खणमेयं समासओ भणियं । ओसन्न चरणकरणा वि जेण कम्मं विसोहंति ॥१॥ सुद्धं सुसाहु धम्मं कहेइ निंदइ य निययमायारं । सुतवस्सियाण पुरओ होइ य सव्वोमरायणि ।।२।। वंदइ न य वंदावइ किइकम्मं कुणइ कारवे नेय । अत्तट्ठा न वि दिक्खइ देइ सुसाहूण बोहेउं ॥३॥ (संबोध प्रकरण गुर्वधिकारे ३०७, ३०८)
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