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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आर्द्रककुमार की कथा धिग् धिक् कर्मगति हहा । हाय! हाय! कर्मगति को धिक्कार है।
तब उस भगवती साध्वी ने कहा - कदाचित् ये मुनि रूपी हाथी मर्यादा रूपी आलान - स्तम्भ को जड़ से उखाड़ देंगे, तो निश्चय ही हम दोनों का व्रत भंग हो जायगा। मेरे अन्यत्र चले जाने पर भी उनका मन मेरा ही अनुगमन करेगा। यह विचारकर बन्धुमती साध्वी ने व्रत की रक्षा के लिए अनशनकर तृणवत् प्राणों का परित्याग करके देवलोक को प्रयाण किया। ___सामायिक मुनि ने भी यह सब सुनकर विचार किया - मेरी प्रिया धन्य थी! अविराधित व्रतवाली होते हुए भी उसने मेरे लिए प्राणों का त्याग किया। तो फिर मैं व्रत का विराधित होकर भी जीवित रहूँ-यह तो उचित नहीं है। इस प्रकार विचार करके उस दुष्कृत्य की बिना आलोचना किये अनशन करके मरकर देव-श्री को भोगकर अनार्य कर्म के कारण अनार्य क्षेत्र में मैं आईक कुमार हुआ हूँ। अनार्य रूप में होते हुए भी मुझे महान् आत्मा, सुहद, बन्धु और गुरु रूप सौनन्देय ने प्रतिबोधित किया। अगर मैंने श्रेणिक - पुत्र के साथ मित्रता न की होती, तो अधर्म से दुर्गति में जाते हुए मुझे कौन बचाता? अतः अब आर्य देश में जाकर उस सद्गुरु से मिलकर परिव्रज्या ग्रहण करूँगा। इस प्रकार चित्त में विचार करके उस अर्हन्त बिम्ब की पूजा करके जाकर पिता को कहा - तात! मेरी अभय के साथ अतिशय प्रीति हो गयी है। अतः हे तात! मुझे आज्ञा दीजिए कि हम एक दूसरे का दर्शन कर के प्रीति को शीघ्र ही उच्च कोटि पर ले जा सकें। राजा ने कहा - हमारी परस्पर प्रीति विशिष्ट उपहारों द्वारा है, लेकिन दर्शन से नहीं। अतः कभी भी वहाँ मत जाना।
तब एक तरफ गुरु (पिता) की आज्ञा थी और दूसरी तरफ मित्र का प्रेम था। अतः न तो जाया जाता था, न ही रहा जाता था। झूले पर आरुद होने जैसी स्थिती हो गयी थी। संपूर्ण कर्तव्यों को छोड़कर दुःख के कारण केवल अन्न मात्र खाता था। वह नारक से निकलने की तरह वहाँ से निर्गमन का विचार करता था। राजा ने उसकी उस स्थिती को देखकर विचार किया कि यह उद्विग्न मनवाला निश्चित ही किसी दिन बिना बताये चला जायगा। तब उसकी रखवाली के लिए ५०० सामन्तों की श्रेणी कुमार के चारों ओर जंगम प्राकोट की तरह खड़ी कर दी। वे कुमार के पार्श्व को उसकी देह की छाया के समान नहीं छोड़ते थे। कुमार ने भी उनके द्वारा स्वयं को बन्दी किये हुए की तरह माना। अतः इस अश्व सवार सैनिकों की पंक्तियों को प्रतिदिन विश्वास में लेकर किसी दिन इनको ठगकर निकल जाऊँगा। ऐसा सोचकर कुमार घोड़े पर सवार होकर रोज अधिक-अधिक दूर जाता था और अधिक-अधिक समय बाद वापस मुड़कर आ भी जाता था। कुमार द्वारा एक प्रहर काल तक दूर-दूर जाकर आने पर वे विश्वस्त होकर वृक्षों की छाया में विश्रान्ति के लिए बैठ जाते थे।
इधर कुमार ने विश्वस्त जनों द्वारा एक पोत बनवाया। उस पोत में असंख्य रत्न तथा उस जिन-बिम्ब को रखा। एक बार उन ५०० सैनिकों के विश्वस्त होकर बैठने के बाद आईककुमार वेग पूर्वक समुद्रतट पर जाकर पोत पर आरुद होकर आर्य देश को चला गया। पोत से उतरकर व्रत काल में विलम्ब हो जाने की आशंका से उस बिम्ब को अभय के समीप किसी के साथ भिजवा दिया, पर स्वयं नहीं गया। बहुत से रत्नों का सप्त क्षेत्र में दान करके कितने ही रत्न उन विश्वस्त जनों को भी दिये। यतिवेश को ग्रहणकर समभाव से जब वह सामायिक व्रत का उच्चारण करने लगा, तो आकाश से देवता ने कहा-व्रत ग्रहण मत करो। अभी तुम्हारे भोगावली कर्म बाकी है। ये
करों द्वारा भी भोगने पर ही क्षय को प्राप्त होते हैं। ऐसे व्रत को प्राप्त करने से क्या? जिसका बलपूर्वक त्याग करना पड़े। अतः हे वीर! तभी व्रत ग्रहण करना जब किसी के द्वारा न छुड़वाया जाय।
पर आर्द्रककुमार ने उसके वचनों की अवमाननाकर वीर-वृत्ति द्वारा "मुझे कौन व्रत छुड़वायगा" इस प्रकार 212