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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आर्द्रककुमार की कथा || आर्द्रककुमार की कथा || द्वीप की तरह समुद्र के बीच में रहा हुआ आर्द्रक नामक देश था। लक्ष्मी के रत्नाकर कोष की तरह वहाँ आर्द्रकपुर नामक नगर था। प्रथम मेघ की तरह अपने चित्त सलिल सार से इच्छुकों में बार-बार बरसते हुए नित्य ही साई की तरह वहाँ का राजा आईक था। पवित्र मार्ग का अनुगमन करने वाली आई की तरह ही आर्द्रा उसकी रानी थी। सर्व गुणों के आलय रूप उनका आईक कुमार नामक पुत्र था। एकबार आईक राजा के पास श्रेणिक राजा का मन्त्री स्नेह - वृक्ष का सिंचन करने वाले उपहार लेकर आया। उसका उचित प्रतिपत्ति द्वारा औचित्य करके निम्बदल, संचल आदि उपहारों को ग्रहण किया। प्रेम से आरुद पुलकित रोम राशि द्वारा उसको पूछा - हमारा बन्धु! मगधेश्वर श्रेणिक कुशल पूर्वक है? उसने कहा - देव! बलीवर्द की तरह महाबली आप जैसा मुक्तारत्न रूपी वृक्ष जैसा मित्र जिन्हें मान देता हो, वह तो कुशल ही होंगें। आपके कुशल समाचार रूपी बादल के लिए उत्कण्ठित मोर की तरह केवल आप में स्नेह होने के कारण ही मुझे यहाँ भेजा है। आईक राजा ने भी कहा - मन्त्रीवर! क्या कहते हो? श्रेणिक जैसा अन्य कोई स्निग्ध बन्धु हमारा नहीं है। यह सुनकर आईककुमार ने कहा - तात! श्रेणिक राजा कौन है। जिनमें हमारा यह सर्वस्व प्रेम अनन्य सदृश है।
राजा ने कहा - इस पृथ्वीतल पर मगध नामक देश है। वहाँ राजग्रह नामक नगर साक्षात् राजाओं का घर हैं। उस राज्य-चक्र के शिरोमणी श्रेणिक नामक राजा है। हमारी उनके साथ प्रीति कुल-क्रम से आयी हुई है। हे पुत्र! उन्हीं का यह मन्त्री हमारे लिए उपहार लेकर आया है। यह सुनकर आईक कुमार ने पूछा - प्रभो! क्या उनका पुत्र है? उस मन्त्री ने हर्षित होकर कहा - कलासागर में पारंगत बुद्धि से उज्ज्वल पाँचसो मन्त्रियों में मुख्य मंत्री रूप उनका पुत्र है। चारनीति रूपी लता द्वारा आश्रित वृक्ष की तरह है। चतुरंगिणीसेना के अध्यक्ष है। चारों प्रकार की बुद्धि के निधान रूप हैं। चारवर्गों के एकमात्र शास्ता रूप है। महारानी सुनन्दा का वह पुत्र लोगों के आनन्द रूपी कन्द में अंकुरों को उत्पन्न करने वाले मेघ की तरह है। ज्यादा क्या कहूँ। वस्त्र की तरह वे गुणरूपी धागों से निर्मित हैं। श्री वीर प्रभु जिनके देवता हैं। उनके गुरु सुसाधु हैं। साधर्मिकों में सौहार्द्र रूप प्रीति उनके हृदय में जिनेश्वर द्वारा प्रेरित है। जिसके बुद्धि - प्रपंच से श्रेणिक राजा निश्चिन्त हैं। निडर होकर वे जगत पर चक्रवर्ती की तरह राज करते हैं। ऐसे अभयकमार का नाम सर्वत्र ख्यात है. फिर आप कैसे नहीं जानते?
कस्मिन्नपि प्रदेशे किं ज्ञायते नांऽशुमानपि । क्या सूर्य किसी भी प्रदेश में अज्ञात रहता है?
यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ कुमार राजा को बोला- देव! आपकी तरह मैं भी राजा श्रेणिक के आत्मज के साथ मैत्री का इच्छुक हूँ। राजा ने कहा - वत्स! मेरा पुत्र कुलीन है क्योंकि क्रम से आयी हुई प्रीति को पालने का मनोरथ तुम्हारे मन में जागा है। पिता की आज्ञा से वह विशेष रूप से प्रमुदित हुआ। उसने मंत्री से कहा - तात! उन्हें मुझसे मिलने के लिए भेजना। उसके वचनों को स्वीकार कर वह भी नृप द्वारा आदिष्ट स्थान पर चला गया। राजा ने उसको मित्र-वत्सल की तरह बहुत आतिथ्य सत्कार के साथ रखा। कुछ दिनों बाद दिव्य रत्न आदि से युक्त उपहार समर्पित करके राजा ने उस मंत्री का विशिष्ट सम्मान करके विदा किया। वह आईक कुमार से भी मिला। कुमार ने भी श्रेणिक - पुत्र में प्रीति युक्त होकर उसके हाथ में महामूल्यवाले उपहार समर्पित किये। फिर अपना संदेश कहा - मंत्रीवर! मेरे वचन उससे कहना कि हे सौनन्देय! आपके साथ आईक कुमार मैत्री की इच्छा करता है।
राजग्रह जाकर राजपुरुष व मंत्री ने राजा के उपहार राजा को तथा कुमार के उपहार अभय को समर्पित किये। शक्कर सहित आम्ररस की तरह स्नेह - गर्भित वाक्यों द्वारा अनेक संदेश कहे। श्रेणिक राजा उन संदेशों से 210