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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नन्दीषेण की कथा
सिद्धि रूपी लक्ष्मी का आकांक्षी बनते हुए अपनी अन्तःपुरियों को छोड़कर द्रव्यस्तव करके भाव स्तव करने के लिए वह कुमार प्रस्थित हुआ। उस समय अन्तरीक्ष में रहे हुए देवता ने कहा - वत्स! वत्स! व्रत-इच्छा के तुम इस प्रकार उत्सुक मत बनो। हे राजपुत्र! तुम्हारा भोगावली कर्म अभी तक शेष है। चारित्रावरणीय कर्म को उल्लंघन करने में अहँत भी समर्थ नहीं है। अतः कुछ समय तक यहीं ठहरकर कर्मों का उपभोग करो, फिर दिक्षा ग्रहण करना, क्योंकि
काले फलन्ति तरवोऽपि यत् । वृक्ष भी समय पर ही फलित होते हैं।
साधुओं के मध्य रहते हुए वह कर्म मेरा क्या करेगा? - इस प्रकार देवता के वचन का अनादर करते हुए वह प्रभु के पास में गया। स्वामी ने भी कहा - यह तुम्हारी प्रव्रज्या का निरवद्य समय नहीं है। फिर भी उसने तीव्र इच्छापूर्वक शीघ्र ही व्रताग्रही होकर व्रत ग्रहण कर लिया। वीर प्रभु के साथ जगतीतल पर विहार करने लगे। उस महासत्त्वशाली ने निर्ममत्व होकर परीषहों को पराजित किया। वे तपस्वी कठिनतम अनेक तपों से तपे। उन तपों के प्रभाव से उन्हें विचित्र लब्धियाँ प्राप्त हुई। नित्य ही महाकष्टपूर्वक महा-आतापना आदि लेते हुए उन्होंने सर्वथा रूप से इन्द्रियों के विषयों को जीत लिया, जिससे कोई विकार पैदा न हो सके। तब नन्दीषेण मुनि ने देवता द्वारा कहे हुए कर्म-फल-भोग को सर्वथा भस्मसात् किया हुआ मान लिया। पर पूर्व के भगवान् एवं देव द्वारा कहे उस कर्म से डरते हुए उन्होंने साधुओं का सान्निध्य नहीं छोड़ा। तप की मुट्ठी में अपने आपको एकाकि रूप से दृढ़ बना लिया। फिर सेनापति की तरह एकाकी विहार की इच्छा से नन्दीषेण ने अपने पौरुष बल से भाव - शत्रओं की अवमानना करके बेले के पारणे के दिन भिक्षा के लिए एकाकी निकले। अनजाने में वेश्या के घर में प्रवेश किया। महामुनि ने धर्मलाभ शब्द का उच्चारण किया। तब वेश्या ने हंसकर विलास युक्त मीठी वाणी में कहा-मुनि जिस प्रकार व्यभिचारियों को विरागरस इष्ट नहीं है, उसी प्रकार यहाँ धर्मलाभ उचित नहीं है, बर्फ को पिघलानेवाली अग्निकी तरह यहाँ द्रव्यलाभ ही मूल्यवान् है। प्रशम भाव में एकान्त रूप से निवास करने वाले भी मुनि क्रोधित हो गये कि यह तुच्छ स्त्री भी मेरी हंसी उड़ा रही है। उन्होंने एक तृण हाथ में लेकर उसे तेज फूंक से उड़ा दिया। उनकी तपोलब्धि से उस के घर में रत्नराशि की वर्षा कर दी। यह द्रव्य लाभ है-इसकी कीमत आँक लो - क्रोधित होते हुए यह कहकर वह महान तपोलब्धि से युक्त मुनि उसके घर से निकलने लगे। यह देखकर वेश्या ने सोचा - यह तो अक्षय महानिधि है। तब उनके पीछे-पीछे दौड़ते हुए कपट का श्रृंगार करते हुए कहा - हे प्राणनाथ! तुम भाड़ा देकर अन्यत्र कहाँ जा रहे हो? तुमने मेरे प्राणों को खरीद लिया है, अब मैं तुम्हें ही खोज रही हूँ। और भी तुम सुकुमार हो तथा यह व्रत अत्यन्त कठिन है। क्या कदली के पत्ते आरे का वार सहन कर सकते हैं? अतः तप का त्याग करके मेरा भोग करना ही उचित है। नागवल्ली की तरह मैं पूगीफल के वृक्ष रूपी तुमको पाकर सुभगसंयोग रूप से अन्योन्य सुख में विलास करेंगे। अर्थात् वृक्ष के आतापना आदि ताप से जैसे लता का सौन्दर्य बढ़ता है वैसे ही हम दोनों का साथ भी सुख के लिए होगा। उसके इस प्रकार अति आर्द्र होकर स्नेह - युक्त वचन से मुनि का चित्त समुद्र से पर्वत की तरह क्षुभित हो गया। उसके भोगावली कर्मों का उस समय उदय हो गया। प्रायः समय आने पर सभी अभ्युदय को प्राप्त होते हैं। अर्हत् - तत्त्व के ज्ञाता होकर भी, मेरु की तरह निष्प्रकम्प होने पर भी चारित्र से रंगित होने पर भी उसके रूई-पिंजने की तरह चाल में चलायमान हो गये। विषयों को विष का स्थान जानकर भी भोगावली कर्म की परवशता के कारण नन्दीषेण मुनि ने उसके वचनों को मान लिया।
उन्होंने प्रतिज्ञा की कि प्रतिदिन मैं दस या उससे अधिक लोगों को प्रतिबोधित करुंगा। जिस दिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोधित नहीं कर पाऊँगा, उस दिन पुनः दीक्षा ग्रहण कर लूँगा। इस प्रकार काम से प्रेरित वह
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