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आईककुमार की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् विचारकर व्रत ग्रहण किया। तब क्रमपूर्वक विहार करते हुए महाव्रतों के महाधनी प्रत्येक बुद्ध भगवान आर्द्रककुमार आत्मा के दुष्कृत का हरण करते हुए अन्य किसी दिन वसन्तपुर पत्तन में आये। बाहर किसी देवकुल में कायोत्सर्ग के लिए स्थित हो गये।
इधर उनकी पूर्व भव की भार्या बन्धुमती ने देवलोक से च्यवकर इसी पुर में महा-इभ्य देवदत्त के घर में पुण्यकर्म से युक्त उसकी भार्या धनवती की कुक्षि से श्री-युक्त लज्जायुक्त, वागेश्वरी तथा बुद्धिमती श्रीमती पुत्री के रूप में जन्म लिया। वह श्रीमती आर्द्रक ऋषि से विभूषित उसी देवकुल में हर्षयुक्त होकर वर-वरण क्रीड़ा करने के लिए आईक मुनि के सुख भोग रूपी कर्मों के द्वारा बुलायी गयी के समान नगर की कन्याओं के मध्य रही हुई आयी। सभी ने अपने-अपने अभीष्ट वर के रूप में अन्य-अन्य का वरण किया। उन्होंने श्रीमती को कटाक्षपूर्ण लहजे में कहा कि तुम वर का वरण क्यों नही करती। तब उसने कहा - हे सखियों! मेरे द्वारा यह साधु वरण कर लिया गया है। तभी आकाश से देवों ने कहा - हे बाले! तुमने बहुत अच्छा वर वरण किया है।
उस समय आकाश-पाताल के खाली जगह को स्फुटित करती हुई गर्जना करती हुई धारा बद्ध वर्षा के समान ओलों की तरह रत्नों की वृष्ठि हुई। तब किधर जायें - इस प्रकार कन्याओं द्वारा मार्ग - नाश होने पर डरती हुई श्रीमती उन्हीं मुनि के पाँवों से लिपट गयी। उस काँपति हुई कन्या के सर्पिणी के समान पाँवों से लिपट जाने से आर्द्रक मुनि अनुकूल उपसर्ग जानकर शीघ्र ही त्वरित गति से वहाँ से निकल गये। तब देवता के वचन से आशंकित घबराये हुए उन्होंने विचार किया कि इस वसति में तथा यहाँ के विपिन में एक रात्रि भी निवास नहीं करूँगा।
उधर रत्नवृष्टि को सुनकर कौतुक के अधीन मन वाला राजा नागरिकों के साथ वहाँ आया। अस्वामी का धन राजा का होता है - इस प्रकार चित्त में विचारकर राजा के आदेश से सैनिक उन रत्नों को इकट्ठा करने में लग गये। तब मर्त्यलोक को देखने की इच्छा से आये हुए नागलोक के देवों ने उन रत्नों को नाग की तरह ग्रहण करते हुए राजपुरुषों को रोकते हुए कहा - मेरे द्वारा ये सारे रत्न श्रीमती के वरण - उत्सव के लिए दिये गये हैं। अतः ये रत्न इसके पिता के हैं। तब उसने सभी के देखते-देखते रत्न श्रीमती के पिता को दे दिये। बहुत सारा मिलने पर भी जिसके द्वारा लभ्य है, वही प्राप्त करता है। तब अदृश्य, अश्रुत उस आश्चर्य का विचार करते हुए सभी नाटक के समाप्त होने की तरह अपने-अपने स्थान पर चले गये।
श्रीमती के लिए बहुत सारे वर लाये जाने पर श्रेष्ठी ने श्रीमती से कहा - तुम अपना पति वरण कर लो। उसने कहा-तात! मैंने अपनी रुचि से उसी समय मुनि को वर के रूप में ग्रहण कर लिया था, जब वरण द्रव्य उसके लिए ग्रहण करते हुए आपके द्वारा मुझे दिया गया था। इसके साक्षी नगर के मनुष्य है, राजा है तथा आकाश के देवता है। अतः मुझे अन्य किसी को प्रदान न करें। इसमें नीति भी बाधिका होती है। क्योंकि कहा गया है -
सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति साधवः । सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ।।
राजा एक बार ही बोलते हैं, साधु भी एक ही बार बोलते हैं। कन्यायें भी एक ही बार दी जाती है। इस प्रकार ये तीनों ही कार्य एक-एक बार ही किये जाते हैं।
__ तब श्रेष्ठी ने उससे कहा - वत्स! वह कैसे जाना जायगा? अथवा वह साधु कैसे खोजा जायगा, क्योंकि वे तो सर्वत्र वायु की तरह भ्रमण करते हैं। उसने कहा - उस समय रत्न - वृष्टि की गर्जना के भय से जब मैं उनके पाँवों से लिपटी थी, तो मैंने उनके दाहिने पाँव में एक निशान देखा था, उससे मैं उन्हें जान जाऊँगी। तब श्रेष्ठि ने उससे कहा - पुत्री! अपनी दानशाला में तुम ही जाकर दान दो। कदाचित् वह साधु भी वहाँ आ जाय। तब वह भी
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