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आर्यरक्षिताचार्य की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
पर्वत की ओर प्रयाण कर गये । करुणायुक्त साधुओं द्वारा एक लघु क्षुल्लक मुनि को वहीं रहने के लिए कहा गया, पर गुरु के प्रति अति स्नेह वाला वह नहीं माना। ग्राम के अन्त में किसी भी प्रकार से सह- साधुओं द्वारा उसे व्यामोहित करके सिद्धि प्रसाद पर आरूढ़ होने के लिए प्रभु पर्वत पर चढ़े। क्षुल्लक मुनि ने यह जानकर प्रभु को असुख (दुःख) न हो ऐसा सोचकर उसने भी पर्वत के नीचे रहते हुए ही अनशन स्वीकार कर लिया। मध्याह्न के आतप से क्लान्त वे क्षुल्लक मुनि नवनीत की तरह पिघलकर आत्मा में ध्यान लीन होते हुए सूर-सम्पदा को प्राप्त हुए। तब उसके सत्त्व से संतोष को प्राप्त होते हुए देवों ने उनके शरीर की महा ऋद्धि पूर्वक महिमा की ।
साधुओं ने प्रभु वज्र से पूछा- देव! ये क्षुल्लक मुनि कहाँ अवतार लेंगे? स्वामी ने कहा- क्षुल्लक मुनि अपनी आत्मा का स्वार्थ साध लिया है, इसिलिए देवताओं ने यह महात्म्य किया है। यह सुनकर मस्तक हिलाते हुए, मुनि की प्रशंसा करते हुए वे मुनि विशेष रूप से दृढ़ होकर स्वार्थ साधन में तत्पर बनें। उस पर्वत की अधिष्ठात्री मिथ्यादृष्टि देवता ने श्राविकारूप बनाकर प्रत्यनीका की तरह मुनि से कहा- खण्ड खाद्य आदि सम्पूर्ण अमृत के समान इस खाद्य को शीघ्र ही प्रसन्न होकर ग्रहण करके हे पूज्य पारणा कीजिए। उस देवी को अप्रीतिकर जानकर वे उस पर्वत को छोड़कर ध्यान- विघ्न के भय से उसके समीपवाले पर्वत पर चले गये। वहाँ के देव की आज्ञा लेकर वे तपोधनी कायोत्सर्ग में लीन बने । उस देवता ने भी प्रीतिपूर्वक वहाँ आकर उनको कृत अंजलि नमस्कार करके कहा- हे पूज्य ! तीर्थ पर्वतों के शिरोमणी ! मैं कृतकृत्य हुआ । वज्र स्वामी की महिमा तो अष्टापद आदि तीर्थों से स्पर्धा करती है। तब वे प्रभु वज्र उस समय शिष्य परिवार सहित भक्त व देह का त्याग करके समाधिपूर्वक स्वर्ग में गये । तब रथ- वाहन युक्त इन्द्र ने आकर गुरु भक्ति की प्रेरणा से उस पर्वत की तीन प्रदक्षिणा दी। वज्र स्वामी आदि की देहों को अतिशय महिमा की । तीर्थंकर की तरह वज्र स्वामी के सम्मान में वृक्ष भी झुक गये। आज भी उस पर्वत पर वे वृक्ष उसी प्रकार हैं। तब से उस विराट पर्वत का नाम रथावर्त्त संज्ञा को प्राप्त हुआ ।
वज्र स्वामी के स्वर्ग में चले जाने से दसवें पूर्व का विच्छेद हो गया। साथ ही चौथे संहनन अर्द्धनाराच का भी विच्छेद गया। अपने शिष्य वज्रसेन को, जो स्वामी ने पहले ही भेज दिया था, वे मुनि विहार करते हुए सोपारिक नगर में आये । वहाँ का राजा जितशत्रु एवं रानी धारिणी थी । उसी नगर में जिनदत्त नामक श्रावक तथा ईश्वरी नामकी उसकी प्रिया थी । वहाँ पर दुर्भिक्ष की प्रकर्षता से धान्य का अभाव होने से सभी निर्जल में मीन की तरह हो गये। तब सेठानी ईश्वरी ने लाखों रुपये के मूल्य वाले धान्य को लाकर पकाकर एक थाली में रखकर अपने कुटुम्ब से कहा- अब तक बहुत सारा धन देकर भी हमने धान्य प्राप्त किया है एवं आज तक सारा कुटुम्ब सुख से जीया है। पर अब धान्य के अभाव में जीवन नहीं है। बहुत सारा द्रव्य होने पर भी वह खाने के लिए शक्य नहीं है । अतः इस भोजन में विष डालकर, पंच- नमस्कार का स्मरणकर, आराधना करके इसे खाकर सुसमाधिपूर्वक मरण को प्राप्त कर लेवें । उन सभी ने भोजन में विष मिलाकर खाना स्वीकार कर लिया । विष मिलाने के पूर्व ही विहार करते हुए वज्रसेन स्वामी उनके घर पर आये । ईश्वरी सेठानी भी उन मुनि को देखकर प्रमुदित होते हुए विचार करने लगी की अहो ! हमारा धन्य भाग्य ! कि हमारे यहाँ अतिथि के रूप में साधु आये हैं। अतः इस सत्पात्र में शुभचित्त पूर्वक मैं परलोक के मार्ग के पाथेय रूप सुवित्त (इस आहार ) को देऊँगी । इस प्रकार विचार करके संतुष्ट होकर मुनि को प्रतिलाभित किया। फिर लक्षान्न पाक वृत आदि सारी बात मुनि को बतायी। वज्रसेन ने कहा इस प्रकार यम के मुख में प्रवेश मत करो। प्रातः सुभिक्ष प्रवर्तित होना ही चाहिए - इसमें कोई संशय नहीं है। उसने पूछा
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• आप कैसे जानते हैं? अपने ज्ञान से या ज्ञानी पुरुष से ? उन्होंने कहा - अपने गुरु वज्र- स्वामी की वाणी द्वारा यह जानता हूँ। मेरे गुरु ने कहा था कि - वत्स! जहाँ तुम भिक्षा में लक्षौदन प्राप्त करोगे, उसके दूसरे दिन वहाँ सुभिक्ष काल प्रवर्तित होगा। तब उनकी वाणी से कुटुम्ब सहित जीवन दान पाकर ईश्वरी सेठानी ने जहर फेंक दिया और
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