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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आर्यरक्षिताचार्य की कथा अभी भी इन्हें अति स्निग्ध भोजन से पोषित करता है। परन्तु यह मुनि शुद्ध - ध्यान में निरन्तर आसक्त रहने के कारण बकरे को सिंह दिखाये जाने के समान शरीर से बल को प्राप्त नहीं कर पाते। अगर इस अर्थ में विश्वास नहीं है, तो अभी भी घर ले जाकर पहले की तरह इसे स्निग्ध - भोजन से पोषित करो। तब उन्होंने भी वैसा ही किया। दुर्बलिका पुष्य ने भी रात-दिन एकाग्र होकर श्रुत - ध्यान रूपी अग्नि से आहार को भस्मसात् किया। जैसे दुष्ट का बहुत सारा सत्कार भी विफल होता है, वैसे ही दुर्बलिका पुष्य को सरस आहार देना भी फलित नहीं हुआ। उसका पोषण कर-कर के वृक्ष को सींच-सींचकर फल के अनावलोकन की तरह देखकर निर्विघ्न होते हुए उनके गुरु को कहा। तब गुरु ने कहा - अब इसे प्रान्त आहार देवें। दुर्बलिका पुष्य को कहा कि वह कुछ दिन तक ध्यान आदि न करे। इस प्रकार किये जाने पर वह थोड़े ही दिनों में सर्वांग से मांसल होकर बैल की तरह यौवन को प्राप्त हुआ। उनका विश्वास देखकर तथा देशना को सुनकर वे बौद्ध कुवासना का त्यागकर परम आर्हत हुए।
उनके गच्छ में चार साधु शरीरी के दान, शील, तप व भाव की तरह अधिगत सूत्र वाले थे। उनमें पहला तो यही दुर्बलिका पुष्यमित्र था। दूसरा गुरु का छोटा भाई फल्गुरक्षित, तीसरा गुरु का मामा गोष्ठामाहिल तथा चौथा विन्ध्य नाम के गुणी हाथी की तरह विन्ध्य नामक ऋषि था। विन्ध्य मुनि अति मेधावी होने से वाचना के क्रम से खिन्न होते हुए गुरु ने अपने लिए अन्य वाचनाचार्य की माँग की। तब आचार्य ने उनके वाचनाचार्य के रूप में दुर्बलिका पुष्य को नियुक्त किया। कितने ही दिनोंतक उन्होंने वाचना दी। फिर उन्होंने वाचना देते हुए कहा - प्रभो! मेरा शेष श्रुत बिना स्मरण किये रुष्ट की तरह चला जाता है। बन्धु के घर पर रहते हुए मेरे द्वारा कुछ दिनोंतक ज्ञान का पुनरावर्तन नहीं किया गया। अतः अब मेरा श्रुत दोलायमान है। यह सुनकर गुरुने विचार किया कि अगर इस महामति का श्रुत भी स्मरण करते हुए भी नष्ट हो रहा है, तो अन्य की तो गिनती ही क्या। तब उन्होंने श्रुत उपयोग से जाना कि श्रेष्ठ गणधरों की अपेक्षा उनके शिष्यप्रशिष्य क्रमशः अपकृष्ट मति वैभव वाले होंगे। अतः आर्यरक्षित स्वामी ने उनके अनुग्रह के कारण से चार अनुयोगों का अलग से उपदेश दिया। पहला चरणकरणानुयोग कालिक सूत्र में, गणितानुयोग सूर्य प्रज्ञप्ति आदि में निवेशित है, धर्मकथानुयोग तो ऋषि-भाषित विषय है तथा द्रव्यानुयोग रूप चौथा अनुयोग दृष्टिवाद में नियोजित है।
एकबार भगवान् ग्रामानुग्राम, पुरानुपर पृथ्वी पर विचरण करते हुए मथुरा नगरी पधारें। वहाँ विशाल एवं सुनसान यक्षगुहा - चैत्य में आर्यरक्षित सूरि विराजे। इधर सुधर्मा - अधिपति महाविदेह क्षेत्र में सीमन्धर स्वामी की वन्दना के लिए अवतीर्ण हुआ। वहाँ उसने प्रश्न किया - प्रभु! निगोद किस प्रकार के होते हैं? भगवान् ने भी उसके सम्पूर्ण स्वरूप का कथन किया। पुनः इन्द्र ने पूछा - स्वामी! क्या भरतक्षेत्र में भी कोई ऐसा है, जो कुशाग्र बुद्धि द्वारा इस प्रकार निगोद के बारे में पूछे जाने पर विश्लेषण कर सकता है। अहँत प्रभु ने कहा- हाँ! है। आर्यरक्षित सूरि श्रुतज्ञानी हैं। वे बुद्धिशाली मेरे जैसी ही व्याख्या करते हैं। तब इन्द्र को अतिविस्मिय हुआ कि जिनकी तीर्थंकर स्वयं प्रशंसा करते हैं, वे दिव्य ज्ञानी सूरि कैसे होंगे? अतः वह इन्द्र ब्राह्मण का रूप बनाकर वहाँ आया। साधु संघाटक द्वारा गोचरी के लिए वसति में चले जाने पर पृथ्वी पर आकर प्रभु आर्यरक्षित को वन्दनाकर कहा - प्रभो! मैं व्याधि से पीड़ित हूँ। दयानिधे! कृपाकर बतायें कि मेरी कितनी आयु शेष है? जैसे भवभ्रमण से मोक्षार्थी खिन्न होता है वैसे ही मैं भी जीवन से खिन्न हुआ हूँ। जिससे अनशन करना चाहता हूँ। मेरे प्राण दुःख को लेकर चले जाये।
यह सुनकर आचार्य ने उनकी आयु का विचार किया। प्रार्थित के मनोरथ की तरह उनकी आयु को अधिकाधिक बढ़ती हुई देखकर विचार किया कि - यह मनुष्य न तो भरतक्षेत्र का है और न ही महाविदेह का। व्यन्तर देव भी यह नहीं हो सकता, क्योंकि इसकी आयु रेखा तो बढ़ती ही जा रही है। पल्योपम आदि का उल्लंघन
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