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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आर्यरक्षिताचार्य की कथा को छोड़कर बाकी सभीको वंदन करेंगे। यह सुनकर आर्य ने क्रोधित होते हुए रोषपूर्ण कठोर वाणी में उनसे कहा - तुम पिता, दादा, पडदादा होकर भी चाहे कभी मुझे वन्दन मत करना। किसी के वन्दन किये जाने या न किये जाने पर भी मैं ऐसे ही रहूँगा। मैं निर्लज्ज होकर इस कमर के वस्त्र का त्याग नहीं करूँगा। ___एक बार एक साधु अच्छी समाधि द्वारा अंतिम आराधना करके शुद्ध अंतःकरण से मृत्यु को प्राप्त हुआ। तब आचार्य ने अपने पिता के वस्त्र मोह (कटी-पट) को छुड़वाने के लिए उनके समक्ष सभी साधुओं से कहा - साधु के चारित्र के पात्र रूपी इस शरीर को जो वहन करता है, उसकी अतीव महती कर्म-निर्जरा होती है। तब पूर्व में सांकेतिक मुनियों ने विनय से उद्यत पहले मैं-पहले मैं इस प्रकार आगे बढ़ते हुए देह को वहन करने के लिए उपस्थित हुए। सोम ऋषि ने भी उनको देखकर बहु-निर्जरा की स्पृहा करते हुए कहा - वत्स! यदि ऐसा है, तो मैं इसको वहन करुंगा। गुरु ने भी कहा - युक्त है, बहुत श्रेयस्कर है। पर बच्चों आदि के द्वारा बहुत उपसर्ग निर्मित होंगे। हे आर्य! अगर उनको सहन करने में पार पा सकते हो, तो वहन करो अन्यथा वे मेरे अनर्थ का ही कारण बनेंगे। मैं सम्यक् प्रकार से सहन करूँगा इस प्रकार कहकर वहन करने में लग गये। तब साधु आगे चले फिर संघ और साध्वियाँ आदि भी पीछे चले। पूर्व में संकेतित बालकों ने उनके कटी-पट का हरण कर लिया। तब बहुओं आदि द्वारा देखे जाने से अति लज्जित होते हुए भी "मेरे पुत्र को यह उपसर्ग अनर्थकारी न हो" यह सोचकर पुत्रस्नेह से उसको आँख बन्द करके सहन किया। फिर अन्य साधुओं द्वारा उसके सामने परदे के रूप में चोल पट्टा बाँधने पर मौनपूर्वक शबको वहन कर परठकर उपाश्रय में आने पर गुरु ने कहा-आर्य! यह क्या है? तब उसने यथावृत्त कह दिया, क्योंकि
नास्त्यकथ्यं गुरोर्यतः। गुरु को कुछ भी अकथ्य नहीं होता।
किसी मुनि के पास से सुगुरु ने वस्त्र लाकर उनको कहा - आर्य! इसे ग्रहण कीजिए। इस वस्त्र को धारण कीजिए। उन्होंने भी कहा - वत्स! जो दिखा, सो देख लिया गया। अब चोलपट्टा ही अन्य साधुओं के समान होने से ठीक है। तब गुरु ने विचार किया कि पिता ने मुनि भेष तो धारण कर लिया है, पर अभिमान वश भिक्षा के लिए अब भी नहीं जाते हैं और भिक्षाचर्या के बिना अत्यधिक निर्जरा कैसे होगी अथवा कदाचित् एकाकी रहने पर यह खायेंगे कैसे? ___तब संकेत करके साधुओं को कहा - आज अमुक ग्राम जाकर हम शीघ्र ही आ जायेंगे। अतः मेरे पिता का मेरी ही तरह खयाल रखना। उन्होंने भी गुरु आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर गुरु गाँव को चले गये। भोजन का समय होने पर सभी अलग-अलग जाकर अपना-अपना आहार ले आये और संन्यासी की तरह खाने बैठ गये। किसी ने भी सोमदेव मुनि को निमन्त्रण नहीं दिया। उन्होंने मन में सोचा कि गुरु की आज्ञा का लोप करनेवाले इन पापी मुनियों को धिक्कार है! म्लेच्छ की तरह इन क्रूरों को क्या साधु कहा जाय? मेरे भूखे रहने पर भी इन सभी अधमों ने आहार कर लिया। इस प्रकार दुःखार्त होकर आर्त ध्यान करते हुए भूख से अशक्त पेट द्वारा जैसे-तैसे उन्होंने एक रात्रि एक युग के समान व्यतीत की। प्रातः गुरु के आने पर क्रोध से गद्गद् होते हुए अश्रुयुक्त लोचनों द्वारा आर्य ने साधुओं के असाधु-व्यवहार को बताया। तब गुरु ने क्रोधी की तरह सिर पर नेत्र चढ़ाते हुए उन सभी साधुओं की निर्भर्त्सना करते हुए अपने पिता से कहा - हे तात! आपके लिए भिक्षा मैं स्वयं लेकर आऊँगा। इन बिना दया वाले पापी साधुओं के बिना ही हमारा काम सर जायगा। अब से मैं भी इन कुशिष्यों द्वारा लाया हुआ भोजन नहीं ग्रहण करुंगा। यह कहकर गुरु ने उनके पात्रों को ग्रहण किया।
सोम ऋषि ने विचार किया कि मेरा पुत्र विश्व श्रुत है। अगर जगत् पूज्य यह भिक्षा के लिए जायगा, तो उचित
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