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आर्यरक्षिताचार्य की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् करके भी यह दो सागरोपम की स्थिती में ही ठहरती है। तब उन्होंने जाना कि इतनी आयु वाला तो यह निश्चय ही इन्द्र है। तब अपनी भौहों के केशों को ऊपर उठाते हुए कहा - हे भद्र! वृद्ध ब्राह्मण के वेश में आप समर्थवान् इन्द्र हैं । इन्द्र ने उनके ज्ञान से चमत्कृत होते हुए दिव्यालंकार व श्रृंगार से युक्त इन्द्र के स्वरूप को प्रकट किया। श्रेयस भक्ति द्वारा उन्हें नमस्कार करके सीमन्धर स्वामी के पास किये गये प्रश्नोत्तर आदि 'समस्त रूप से गुरु को निवेदन किया। फिर इन्द्र ने उत्कण्टित होकर श्रुति पुर के द्वारा उस वाणी- सुधारस को पीने के लिए निगोद के स्वरूप को पूछा । आचार्य आर्यरक्षित ने निगोद का कथन करने के बहाने से मानो सीमन्धर जिनेन्द्र का कहा हुआ व्याख्यान ही अनुवादित किया । इन्द्र ने विशेष रूप से आनन्दपूर्वक उस अद्भुत श्रुतज्ञान की प्रशंसा करते हुए वन्दना करते हुए कहा - प्रभो ! वह क्षेत्र धन्य है, जहाँ सर्वज्ञ के प्रतिनिधि के रूप में आप तत्त्व रूपी ज्ञान लोचनों को उद्योतित करते हैं। यह सुनकर आर्यरक्षित स्वामी के बहुमान के कारण उनके मन का हरण हो गया । इन्द्र जब वन्दनाकर देवलोक लौटने लगा, तब गुरु ने शक्र से कहा मेरे साधु आनेवाले हैं। तुम्हें देखकर वे धर्म में सुदृढ़ आशय वाले बनेंगे। पहले भी साधुओं द्वारा हे शक्र ! पुनःपुन प्रार्थित हो! अतः हे इन्द्र! तुम्हारे द्वारा उनके दर्शन के लिए रुकना चाहिए । इन्द्र ने कहा - प्रभो ! मुझे देखकर कोई अल्प सत्त्वशाली निदान कर लेंगे। अतः उन्हें मेरा दर्शन न होना ही श्रेष्ठ है। तब गुरुदेव ने कहा- हे इन्द्र ! अगर ऐसा है, तो अपने आगमन के प्रतीक रूप कोई चिह्न बताकर तुम जाओ। तब उस वसति में रहे हुए यक्ष - गुहाचैत्य के द्वार को विपरीत दिशा में करके इन्द्र देवलोक में चला गया। वसति से विहार करके लौटे हुए साधु प्रतिद्वार को न देखकर मूढ़ की तरह संभ्रमित चित्त वाले हो गये। अपने ज्ञान से उन्हें आया हुआ जानकर गुरु ने कहा- हे मुनियों! इस मार्ग से आओ। द्वार इधर है। साधुओं ने आकर प्रभु से पूछा- यह कैसे हुआ? उन्होंने कहा - शक्रेन्द्र ने आकर यह किया और चला गया। तब मुनियों ने कहा- - हमारे दर्शन के लिए वह क्यों नहीं रूका ! गुरु ने भी इन्द्र द्वारा कथित सारा वृतान्त कह दिया ।
एक बार गुरु अपने चरणों से पृथ्वी को सूर्य की तरह पावन करते हुए दशपुर पधारें और वहाँ वृद्धावास के लिए ठहर गये। उधर मथुरा पुरी में कोई नास्तिकवादी आया। उसने पुर के लोगों को सूचित किया कि उसे जीतने कोई समर्थ नहीं है। तब मथुरा के श्री संघ ने शासन की उत्सर्पणा के लिए युगप्रधान आर्यरक्षित सूरि को दशपुर बुलाने के लिए दो मुनि भेजे। उन्होंने आकर विनयावनत होकर संघ प्रणीत कहा। गुरु वृद्ध होने से वहाँ जाने के लिए स्वयं शक्त नहीं थे। अतः उन्होंने अपने मामा वादी कुंजर गोष्ठामाहिल मुनि को भेजा उन्होंने वहाँ जाकर राजसभा में उस नास्तिक को जीतकर जैनशासन की महती प्रभावना की । उसी समय वहाँ गर्जना युक्त, नवांकुरों को उत्पन्न करनेवाले बादलों से, जगत को आनंद प्रदान करने वाली वर्षारात (चौमासे की रात) पृथ्वीतल पर प्रवृत्त हुई । तब प्रसन्नता के साथ राजा, पुरजन तथा संघ ने गोष्ठामाहिल ऋषि का चातुर्मास वहीं करवाया ।
इधर आर्यरक्षित ने अपना अन्तिम समय जानकर अपने संपूर्ण गच्छ को बुलाकर कहा - हे महाभाग ! हम मुमुक्षुओं के समूह रूप हैं। अतः आप कहें कि आपके आचार्य कौन होने चाहिए? गुरु के प्रति बहुमान पूर्वक उन गच्छ - साधुओं ने कहा- फल्गुरक्षित अथवा आर्य गोष्ठामाहिल को आचार्य बना दीजिए। गुरु ने गुणग्राही एवं मध्यस्थ चित्त वृत्ति के द्वारा बहुश्रुत दुर्बलिका पुष्य को गुणों द्वारा संपन्न मानकर कहा- हे मुनियों! हे श्रमण पुंगवों ! मैं आपको दूध, तेल तथा घी के भरे हुए घट का दृष्टान्त सुनाता हूँ। दूध के घड़े को उलटा किये जाने पर दरिद्र की थाली में भोजन रखने के समान उसमें कुछ भी शेष नहीं रहता । तेल के घड़े को उल्टा करने पर कुछ-कुछ चिकनाई के अवयव अन्दर रह ही जाते हैं क्योंकि स्नेहशालियों का स्नेह शीघ्र नहीं जाता। पर घृत-घट में तो शून्यस्थान में 1. आर्यरक्षित सूरि के सगे भाई को आचार्य बनाने के लिए मुनिपुंगवों के कहने पर भी गच्छ हित के लिए उनको आचार्यपद न देकर दूसरे मुनि को आचार्यपद दिया। वर्तमान में पदेच्छा एवं स्नेह के कारण पदवी प्रदान की प्रथा की क्या दशा हुई है? सुज्ञजन विचारें।
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