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आर्यरक्षिताचार्य की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् हो। आरक्षित ने कहा - अगर तुम्हारे वचन सत्य हो तो तुम ही जगत्-पूज्या, जगत्-हितकारिणी इस प्रव्रज्या को ग्रहण करो। ऐसा ही होगा - यह कहकर शीघ्र ही अपने सहोदर के पास में विभूति के अंश की तरह चारित्र को फल्गुरक्षित ने ग्रहण किया। उसने भी अध्ययन प्रारंभ किया। कुछ दिनों बाद आर्यरक्षित ने अध्ययन करते हुए अनेक यमकों का अध्ययन करने के पश्चात् गुरु से जाने के लिए पूछा। पुनः गुरु द्वारा निषेध किये जाने पर वह खेद खिन्न हुआ कि एक को जोड़ने जाता हूँ, तो दूसरा मेरा टूट जायगा। एक तरफ स्वजनों का आह्वाहन है, तो दूसरी तरफ गुरुआज्ञा है। तो मैं क्या करूँ? इस प्रकार दुविधा में पड़कर वह पाठ से पराभग्न हो गया। एक बार उसने वज्र प्रभु से भक्ति द्वारा विनयपूर्वक पूछा - मैंने दसवें पूर्व का कितना ज्ञान पढ़ लिया है और कितना बाकी है। गुरुदेव ने मुस्कराकर कहा - बिन्दु जितना पढ़ा है, सिन्धु जितना बाकी है अथवा सरसों जितना अध्ययन किया है, सुमेरु जितना बाकी है। यह सुनकर उस भीतात्मा रक्षित ने कहा - प्रभो! मैं अभागा समग्र दसवें पूर्व को पढ़ने के लिए समर्थ नहीं हूँ। गुरु ने कहा- तुम जैसे प्रज्ञावान गम्भीर व्यक्ति के लिए यह दसवाँ पूर्व रूप समुद्र दुस्तरणीय नहीं है। इस प्रकार उत्साहित किये जाने पर भी बीमारी से आक्रान्त की तरह आलसी होकर वह गुरुभक्ति के बल से कुछ दिन और अध्ययन करते हुए रुका रहा। वज्र स्वामी ने भी उसे गाद रूप से पाठ से पराजित जानकर श्रुतज्ञान में उपयोग लगाकर यह निश्चित किया कि यह दसवाँ पूर्व मेरे साथ ही व्यवच्छेद को प्राप्त हो जायगा। मेरा आयुष्य अल्प है और यह पुनः वापस नहीं आयगा। तब वज्रस्वामिजी ने दशपुर जाने की अनुमति दी। फिर वज्र गुरु से अनुमति पाकर सोम सुत तथा उसके अनुज मुनि दोनों शीघ्र ही दशपुर नगर की ओर गये। वज्रस्वामी भगवान् तो मास-मास से संक्रमित होते हुए सूर्य की तरह कर्क-सङ्कांति में दक्षिण-पथ को प्राप्त हुए। स्वामी को व्याख्यान नाद द्वारा मेघ के समान गरजते हुए देखकर दक्षिण के सभी जन कदम्ब की तरह खिल गये। धर्मोपदेश रूपी रत्नों को विविध रूप से प्रदान करते हुए प्रभु जंगम कल्पवृक्ष की तरह विहार करने लगे।
एक बार भगवान वज्र स्वामी कफ की पीडा से आर्त्त बने। किसी साध को पास के घर से सौंठ का गांठिया लाने को कहा। उस संस्कारी शिष्य ने शीघ्र ही लाकर गुरु को अर्पित किया। आहार ग्रहण करने के बाद गांठिया घीस कर ले लुगा - इस प्रकार विचारकर कान पर उसे अटका लिया। फिर भूल गये। सायंकाल आवश्यकी क्रिया करते हए मखवस्त्र से यक्त संठ का टकडा हाथ लगने से खट आवाज पर्वक शीघ्र नीचे गिर गया। तब वज्र प्रभ ने याद करके विषाद ग्रस्त होकर स्वयं की निन्दा करने लगे - हा! हा! मैंने प्रमादवश इस महा-औषध को विस्मृत कर दिया। प्रमाद में संयम नहीं है और संयम बिना जीवन व्यर्थ है। अतः अब मुझे अनशन करना ही उचित है - इस प्रकार विचार करने लगे।
उस समय सभी जगह बारह वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ। उस दुर्भिक्ष के आदि में ही वज्र प्रभु ने अपने शिष्य वज्रसेन को कहा - जहाँ पर भिक्षा के लिए जाते हुए तुम को लाख रुपये के मूल्यवाले चावल प्राप्त होंगे, वहाँ ठहरते हुए अगले दिन तुम्हें सुभिक्ष तथा विद्या प्राप्त होगी। यह कहकर गुरु द्वारा सूत्रार्थ में पारंगत वज्रसेन को पृथ्वी तल पर विहार करवा दिया गया। कहा भी है -
गुर्वाज्ञा हि बलीयसी। गुरु-आज्ञा महान होती है।
प्रभु भी पुनः साधुओं को घर-घर में घूम-घूमकर बिना भिक्षा प्राप्त किये आये हुए को विद्या-पिण्ड का भोजन कराने लगे। कुछ दिनोंतक वज्र प्रभु मुनियों को इस प्रकार आहार करवाते रहे फिर एक दिन उनसे कहा - क्या बारह वर्ष विद्यापिण्ड द्वारा बिताओगे? उन्होंने कहा-धातु युक्त इस शरीर को अशुद्ध पिण्डदान द्वारा पोषित करने से क्या? धर्म देह तो घायल हो रहा है। तब भगवान् वज्र अपने साधु परिवार सहित जहाज के तारक की तरह
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