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वज्र स्वामी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
मानो लक्ष्मी को प्राप्तकर विष्णु श्रीधर बन गये हों। भद्रगुप्त आचार्य ने उन्हें कहा कि तुम आगे यह ज्ञान जिसमें योग्यता हो और जिसे सीखने की इच्छा हो, उसे श्रुतज्ञान देना - इस प्रकार भद्रगुप्त आचार्य का कहना स्वीकारकर उनको पूछकर वज्र मुनि गुरु की सन्निधि में आये। गुरु सिंहगिरि उस समय दशपुर नगर में थे। दसपूर्वी वज्र मुनि के लिए पूर्व में अनुज्ञा प्राप्त जम्भक देवों ने दिव्य चूर्ण आदि लाकर पुष्प वृष्टि आदि से दिव्य महिमा की। फिर संहगिरि गरु वज्रमनि को गण समर्पित करके अनशन करके समाधिपर्वक देवलोक में गये। तब वज्रमनि ५०० साधुओं के परिवार के साथ सूर्य की तरह भव्य जीव रूपी कमलों को बोधित करते हुए विहार करने लगे।
जहाँ-जहाँ भी पर आदि में वज्र-स्वामी पधारे, वहाँ-वहाँ चन्द्रमा की किरणों की तरह उनके गणों की कीर्ति परिव्याप्त हुई। अहो! वज्र गुरु का शील! अहो रूप! अहो श्रत! अहो सौभाग्य! अहो लावण्य! अहो गणातिशयता!
इधर पाटलीपुत्र नगर में अद्भुत गरिमा युक्त धन नामक श्रेष्ठि नाम से व अर्थ से धनसंपन्न था। उसके सर्व गुण सम्पन्न रुक्मिणी नामक पुत्री थी। उसके रूप से ईर्ष्या करती हुई अप्सराएँ पृथ्वी पर भी नहीं आती थी। उस श्रेष्ठि से पूछकर उसकी यानशाला में श्री वज्र स्वामी की साध्वियाँ ठहरी। वे साध्वाचार में अतितत्पर थीं। नित्य ही वे वज्र गुरु के गुणों का कीर्तन किया करती थी। अति प्रचुरता से उनके गुण उन साध्वियों के वक्ष में समाहित थे। वज्र मुनि के अनन्य गुण-ग्राम को सुनकर रुक्मिणी को वज्र मुनि में पति के समान प्रेम हो गया। वह स्वयं को कहती - यदि वज्र प्रभु मेरे भर्ता बनेंगे, तो ही मैं भोगों का भोग करूँगी, अन्यथा भोगों का परित्याग कर दूंगी। उसके लिए वर उपस्थित किये जाने पर वह उनका प्रतिषेध करते हुए कहती - मैंने वज्र को पति रूप में स्वीकार कर लिया। अब अन्य को कैसे वरूँ? उसे साध्वियाँ कहती - हे मुग्धे! वज्र आचार्य तो नीराग-पुंगव व्रती हैं। वे स्त्रियों से पाणिग्रहण की इच्छा नहीं करते। वह कहती अगर व्रती वज्र मेरे साथ परिणय नहीं करेंगे, तो मैं भी व्रती बन जाऊँगी, क्योंकि -
तन्नार्यो हि पतिर्वम॑गाः। सती नारियाँ पति के मार्ग का अनुसरण करने वाली ही होती हैं।
इधर एक देश से दूसरे देश में सर्वत्र विहार करते हुए देशना के सागर भगवान वज्र पाटलिपुत्र आये। वज्र स्वामी को आये हुए जानकर महान विभूति के साथ सुनन्दानन्दन मुनिराज को वन्दन करने जाते हुए राजा ने मुनि वृन्द के अनेक वृन्द पथ पर आते हुए देखें। उन्हें देखते हुए राजा ने विचार किया - बहुत से चमकती कांति वाले हैं। बहुत से रूप-संपन्न है। बहुत से संयत-इन्द्रिय हैं। बहुत से शुभ संस्थानवाले हैं। बहुत से शम-शाली हैं। बहुत से साम्य-संलीन हैं। बहुत से प्रिय वचन बोलने वाले हैं। अतः अत्यधिक दिव्य श्री से युक्त इन अनेक महर्षियों में से वज्रस्वामी को कैसे जागा? क्योंकि मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा है। तब राजा ने मुनियों से पूछा - हे मुनियों! मुझे बतायें। आप में इन्द्र के सामानिक की तरह वह वज्र नाम के मुनि कौनसे हैं? उन्होंने कहा - महाराज!' हम वज्र मुनि के
वपूर्वक लक्ष्य किये जाने वालें नक्षत्रों में चन्द्रमा की तरह है। इस प्रकार समस्त वृन्दों में पूछते-पूछते राजा ने सब से पीछे के साधु-समूह में वज्रस्वामी को देखा। तब प्रसन्न होकर प्रभु को वंदन करके अपने आपको धन्य मानते हुए अपने हर्षाश्रुओं के छींटे प्रभु के सामने बरसाये। फिर नगर के बाहर उद्यान में बहुत बड़े प्रासाद में भगवान् पाँचसो मुनियों के साथ पधारें। राजा पुरजनों के साथ सभा में बैठा। द्राक्ष के माधुर्य को भी जीतनेवाली मधुर शिरा में वज्र विभु ने व्याख्यान दिया। श्री वज्रस्वामी की क्षीरासुख लब्धि रूपी धर्मव्याख्या से राजा का चित्त-हरण हो गया, तो अन्य का तो कहना की क्या! व्याख्या समाप्त होने पर प्रमुदित होता हुआ राजा घर पर आया।
अन्तःपुरी वर्ग को संभ्रम सहित कहा - हे सुभ्रम! वज्र ऋषि के अंगों की सुन्दरता के दर्शन से, पंचांग द्वारा
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