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सम्यक्त्व प्रकरणम्
वज्र स्वामी की कथा प्रणाम करने से, पांच अभिगमपूर्वक वंदन करने से, मोक्ष द्वार में प्रवेश देनेवाली देशना सुनकर, उनकी अद्भुत, लोकोत्तर यश-सौरभ सूंघकर तथा मेरी जिह्वा से उनके उद्दाम गुणग्राम का स्तव कर-कर के मेरी पाँचों इन्द्रियाँ कृतकृत्य हो गयी हैं। हे रानियों! पूर्व उद्यान में प्रभु विराजित हैं। लोगों को प्रतिबोध देने के लिए स्वयं धर्म के अंग रूप हैं। अतः ऐसे मुनिपुंगव को आप भी वन्दन करके, व्याख्यान सुनकर मनुष्य रूपी वृक्ष के फल को प्राप्त करें। उन रानियों ने कहा - हम स्वयं नमन की इच्छुक हैं। हमें आपकी अनुमति चाहिए। सुनने में उत्कंठित ऐसे हमको आपकी अनुमति मयूर के आलाप के समान है। जैसे विरह पीड़ित कामिनियों के लिए मयूर का आलाप। तब रानियाँ यान पर आरुद होकर उस उद्यान में गयी। वहाँ विमान पर सवार देव भी वज्र स्वामी को नमन करने आये। रुक्मिणी ने भी जब लोगों द्वारा वज्र मुनि का आगमन सुना, तो अरुण के उदय होने पर पभिनी की तरह उसका मुख कमल खिल गया। उसने पिता से कहा - जगत्काम्य मेरे संकल्पित पति वज्रस्वामी अब यहाँ आ गये हैं। मेरा विवाह करके उन्हें मुझे सोंपकर आप निवृत्त हो जाये। हे तात! मेरे चिर मनोरथ को पूर्ण करें। आप विलम्ब न करें, क्योंकि मुनियों का निवास स्थायी नहीं होता। नदी की तरह मुनि क्षण-क्षण में आते-जाते रहते हैं।
तब धन श्रेष्ठि ने पुत्री का विवाह करने के लिए मनुष्यणी होते हुए भी भूचर देवी की तरह विपुल श्रृंगार से सजाकर एक करोड सुवर्ण रत्न वर के लिए साथ में लेकर समस्त स्वजनों से युक्त वह भी उद्यान में गया। संपूर्ण नगरी के लोग वज्र मुनि के व्याख्यान में रञ्जित होकर मदान्ध गन्धहस्ती की तरह मस्तक हिला रहे थे। वे परस्पर कह रहे थे कि इनकी परिपक्व वाणी की मिठास अमृत को भी व्यर्थ साबित करती है। फिर खीर, गुड आदि का तो कहना ही क्या? अथवा इनकी धर्मदेशना सुननेवाले भव्यों के समूह को मोक्ष सुख का उदाहरण ही प्राप्त होता है। लेकिन इनका रूप गुणों के अनुरूप नहीं है अथवा सारी सुन्दरता एक जगह एकत्र होने से होगा भी क्या!
अपने अतिशय से यह सब जानकर प्रभु ने दूसरे दिन हिरण्यमय सहस्रदल कमल की रचना की। जब स्वामी ने नगरप्रवेश किया था, तब अपना रूप वैक्रिय लब्धि द्वारा गोपित कर लिया था, ताकि अतिशय रूप से पुर क्षोभ को प्राप्त न हो। पर अब उस कमल में आसीन होते हए कमला की तरह अपने स्वाभाविक रूप को पुनः यथावस्थित किया। उनके उस रूप को देखकर सभी नागरिक अत्यधिक प्रसन्न हुए और कहा - निश्चय ही प्रभु का यही स्वाभाविक रूप है। केवल स्त्रियों की प्रार्थना के भय से ही प्रभु विरूप रूप में प्रतिष्ठित रहते हैं। राजा ने भी विस्मय भरी दृष्टि से देखते हुए कहा - अहो! प्रभु की वैक्रिय लब्धि देव-योनि की तरह है। उस समय वज्र प्रभु ने अनगार के गुणों की व्याख्या करते हुए बहुत सी आख्याएँ तथा व्याख्याएँ बतायी। व्याख्या के अन्त में धन श्रेष्ठि ने वज्र स्वामी को कहा - भगवान्! मेरी यह पुत्री आपसे पाणिग्रहण करने के लिए उत्सुक है। इसने आपको पति मानते हुए अन्य वरों का निषेध किया है। इतने काल तक वह आपकी तरह आपके नाम में ही स्थिर रही। हे सौभाग्यनिधि! आपके लिए दीर्घकाल से खेदित इस बाला का शीघ्र पाणिग्रहणकर इस पर अनुग्रह कीजिए। प्रभो यह आपके अनुरूप नहीं है, फिर भी यह आप में स्नेहवती हैं। अतः हे कृत्यविद्! दया करके इसे स्वीकार कीजिए। हे प्रभो! विवाह के मंगल फेरे के समय वेदी के अंत में पत्नी युक्त आपको एक करोड़ सुवर्ण रत्न मेरे द्वारा दिये जायेंगे। ___वज्र प्रभु ने कहा - श्रेष्ठि! तुम्हारे हृदय से मेरा व्याख्यान - अर्ध भरे हुए घड़े से जल बाहर निकलने की तरह बाहर निकल गया है। जो कि अज्ञ होकर जानते हुए भी मुझ निर्लोभी को कन्या व धन के प्रलोभन से निमन्त्रित कर रहे हो। हे भद्र! जो बाल्यकाल में माता के प्रलोभनों से लुब्ध नहीं बना, वह इस समय संपूर्ण तत्त्व ज्ञान को जानकर कैसे लुब्ध बनेगा? और भी, स्त्रियाँ तथा धन का विषय विष के समान हैं। मुख में देखने (चबाने) पर मधुर तथा विपाक में कटुक है अथवा विष से भी ज्यादा जहर विषयों का प्रकोप है। कहा भी गया है -
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