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सम्यक्त्व प्रकरणम्
वज्र स्वामी की कथा
देता ही है।)
- गुरु द्वारा अर्पित समस्त श्रुत को वज्र मुनि ने स्वामी द्वारा अर्पित द्रव्य को सम्भालकर रखने वाले भण्डारी की तरह ग्रहण किया। तब से वे वज्रमुनि सन्देह रूपी पर्वत को बड़ा होने पर भी उस दुर्भेद सन्देह को लीलामात्र में वज्र की तरह पीसकर चूर्णपिष्टि बना देते थे। गुरु द्वारा अर्पित दृष्टिवाद को पाकर गुरु होते हुए वज्र ने एक पुत्र की भाँति पिता के सर्वस्व को ग्रहण किया।
एकबार सपरिवार गुरु अपने चरणों से धरातल को पावन करते हुए दशपुर नगर पधारे वहाँ पर उन्होंने स्थविर कल्प में रहे हुए मुनियों से सुना कि अवन्ती में दस पूर्वधारी आचार्य भद्रगुप्त स्वामी विराज रहे है। दसपूर्व के ज्ञान के ग्राहक के अभाव में यह ज्ञान उन्हीं के साथ चला जायगा। भव्य (अच्छा) होता, अगर कोई उदात्त मति वाला उस ज्ञान को ग्रहण कर लेता। अथवा इसमें चिन्तन करने से क्या! पदानुसारी मति के धारी प्रकर्ष प्रज्ञा संपन्न वज्रऋषि उस ज्ञान को ग्रहण कर लेंगे।
___ यह जानकर गुरुदेव ने वज्र मुनि से कहा - हे वत्स! तुम दो साधुओं के साथ अवन्ती जाओ। भद्रगुप्त गुरु के पास दस पूर्व का ज्ञान ग्रहण करो। तुम्हारे बिना अन्य कोई भी यहाँ इस कार्य के लिए कर्मठ नहीं है। दसपूर्वधारी की सिर्फ तुममें ही सम्भावना है क्योंकि अभी तक भद्रगुप्त स्वामी के पास से किसी ने भी दस पूर्व का ज्ञान ग्रहण नहीं किया है। अतः तुम शीघ्र ही पदकर वापस आकर मुझे अभिनन्दित करो। तुम जैसे प्रज्ञा-समुद्र के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। तब शासन देव की तरह वज्र मुनि गुरु-आज्ञा से क्षण भर में ही रवाना हुए और सुख पूर्वक उज्जयिनी नगरी के सम्मुख पहुँचे।
भद्रगुप्त स्वामी ने उसी दिन स्वप्न देखा कि मेरा पात्र खीर से भरा था। किसी आगन्तुक ने उसे पीकर प्रसन्नता को प्राप्त किया। उन गुरु ने उस स्वप्न को यतियों को कहा। सभी ने अपने-अपने विचार से उस स्वप्न का अन्य-अन्य फल कहा। गुरु ने कहा - यह नहीं है, पर इसका फल यह है कि आज कोई ग्राहक आयगा। और मेरे पास से सूत्रार्थ सहित संपूर्ण श्रुतज्ञान ग्रहण करेगा। वज्र मुनि भी पुरी के बाहर विराजे। सूर्योदय होने पर भद्रगुप्त आचार्य से सुशोभित उपाश्रय में गये। उसे देखकर आचार्य भी सूर्य को देखकर कमल की तरह प्रफुल्लित हुए। उन्होंने सोचा - आँखों को शीतलता प्रदान करनेवाले चन्द्रमा की तरह यह बाल ऋषि कौन है? इसे देखने मात्र से कृपा की परमानन्द रूपी सम्पदा प्राप्त होती है। मेरा चित्त इससे जुड़ा जाता है। यह अत्यधिक इष्ट व्यक्ति कौन है? इस प्रकार का तो वज्र मुनि सुना जाता है, तो क्या यह वही हो सकता है अथवा -
नृत्यानि किं केकी विनापि जलदोदयम् ।। क्या मयूर बरसात के बिना नृत्य करता है?
तब प्रणाम के अभिमुख पुत्र की तरह वल्लभ उसको गोद रूपी पलंग पर बैठाकर आचार्य अत्यन्त प्रमुदित हुए। फिर कहा - तुम्हारा विहार सुखपूर्वक तो हुआ? शरीर की भव्यता तो है? हे वत्स! तुम धन्य हो। हे वज्र ऋषि! तुमने इस वय में संयम स्वीकार किया। इस बीतती हुई अवसर्पिणी में तुम्हारे जैसा व्रत का इच्छुक दूसरा कोई पैदा होना भी शक्य नहीं है। इस समय तुम कहाँ से आये हो? तुम्हारे गुरु कौन है? तुम्हारे यहाँ आगमन का क्या प्रयोजन है? निवेदन करो। इस प्रकार के वार्तालाप रूपी अमृत के छींटों को गुरु द्वारा छांटे जाने से पथ का श्रम दूर हुआ
और वज्रमुनि आनन्दित हुए। वज्र ने भी उठकर प्रसन्न मन से वन्दन करके उनके प्रश्नों का उत्तर विनय पूर्वक प्रदान किया। मैं गरु की आज्ञा से आप के पास दस पर्यों का अध्ययन करने आया है। अतः हे निष्पाप आत होकर मुझे पढ़ायें। तब भद्रगुप्त आचार्य ने दस पूर्वो का श्रुत सूत्रार्थ सहित कलश-निधान की तरह अपने आत्म सर्वस्व की तरह वज्र मुनि में उड़ेल दिया। वज्र मुनि भी उस ज्ञान को सम्यक् पूर्वक लेकर के दस-पूर्वधर बन गये।
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