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सम्यक्त्व प्रकरणम्
वज्र स्वामी की कथा
अंगार से चेतन की तरह डरते हुए वे शीघ्र ही अपने स्थान पर लौट गये। कुबेर के भंडार रक्षक देवों ने उस सूक्ष्म वृष्टि का भी उपसंहार करके पुनः वज्र मुनि को अत्यधिक आदर के साथ बुलाया। तब उनके अनुरोध से वे सिद्धि मार्ग के सार्थवाह बाल-ऋषि सार्थ के आवास की ओर चले। अत्यन्त आदरपूर्वक प्रतिलाभित होते हुए उन्हें देखकर द्रव्यादि के द्वारा पिण्ड आदि विशुद्धि को जानने वाले प्रज्ञावान् बाल मुनि ने उन-उन द्रव्यों में उपयोग लगाया। वर्षा के प्रारम्भिक समय में ही यह पेठा आदि द्रव्य कैसे हुआ? अवन्ती का क्षेत्र तो कठोर है, फिर हे श्रावकों! हमें देने के लिए यह कहाँ से लाये? भाव से हष्ट-तुष्ट, पाँवों से भूमि को स्पर्श किये बिना, निर्निमेष दृष्टि आदि को देखकर मुनि संभ्रमित हो गये। निश्चय ही ये देव हैं। मायापूर्वक वणिक् बने हैं। इसलिए भिक्षा ग्रहण नहीं करूँगा। यह भिक्षा अकल्पनीय है। इस प्रकार विचारकर बोले - "साधुओं के लिए देवपिण्ड निषिद्ध है, अकल्पनीय है।" तब चमत्कृत होते हुए देव प्रकट होकर बोले - हे वज्रर्षि! हम तुम्हारे पूर्वभव के मित्र जृम्भक देव हैं। हम सौहार्द्र भाव से तुम्हारी परीक्षा करने के लिए ही यहाँ अवतीर्ण हुए हैं। बालक होते हुए भी तुम्हारी महामतिक्रियाओं से हम प्रसन्न हुए हैं। अतः हमारी वैक्रिय लब्धि नामकी विद्या को प्रसन्न होकर धारण करो। वज्र ऋषि को अनुरोधपूर्वक वह विद्या देकर वे देव चिरकालीन स्नेह वृक्ष पर आरुढ फल वाले होकर लौट गये।
एक बार जेठ के महीने में वज्र मुनि बाह्य-भूमिका में गये। पुनः उन देवों ने वणिकों का रूप धारण करके (घृत से परिपूर्ण) घेवरों द्वारा उन्हें निमन्त्रण दिया। पर उसको भी देवपिण्ड जानकर वज्र मुनि ने ग्रहण नहीं किया। क्योंकि -
मुनयो मुनिचर्यासु न प्रमत्ताः कदापि यत् । मुनि लोग अपनी मुनिचर्या में कभी भी प्रमत्त नहीं होते। तब पुनः वे मित्र देव विशेष प्रीतिवान् होकर मुनि को आकाश-गामिनी विद्या देकर अपने स्थान को चले
गये।
गच्छवास में रहते हुए अन्य साधुओं को पढ़ते हुए सुन-सुनकर वज्र मुनि के ११ अंग पहले ही पदे हुए के समान स्थिर हो गये। पूर्वगत ज्ञान भी किसी-किसी साधु द्वारा पढ़े जाने पर वह भी सुनकर अध्ययन किये हुए की तरह पा लिया। स्थविर साधु जब वज्र मुनि को पढ़ने के लिए कहते, तो वे मुण-मुण करते हुए आलसी की तरह पाठ पढ़ते। अन्य मुनियों द्वारा पढ़े जाने पर एकाग्र मानस द्वारा तृष्णा से पीड़ित की तरह उस श्रुत रूपी अमृत को पीने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहते।
एक बार मध्याह्न के समय कुछ मुनि गोचरी के लिए चले गये। गुरुदेव सिंहगिरि अन्य-मुनियों के साथ बहिर्भूमि को चले गये। वज्र मुनि अकेले वसति-रक्षक की तरह उपाश्रय में रह गये। वज्र मुनि ने बाल-सुलभता से साधुओं की उपधी के द्वारा मुनियों की पक्तियों की तरह गोल घेरा बनाया। उस घेरे के मध्य में स्वयं गुरु की तरह बैठ गये। परिपाटी के क्रम से सभी मुनियों के प्रति पूर्ण ग्यारह अंगों की तथा कुछ पूर्वगत ज्ञान की गर्जना-युक्त ध्वनि में वज्र मुनि ने अस्खलित वाचना दी। उपाश्रय के समीप आये हुए गुरुदेव ने मेघ की गर्जना के समान वाचना-ध्वनि को सुनकर विचार किया - क्या मुनिश्रेष्ठ भिक्षा लेकर शीघ्र ही आ गये हैं? हमारी प्रतिक्षा करते हुए क्या स्वाध्याय कर रहे हैं? एक क्षण विचार करके गुरु ने स्वयं जाना कि यह तो वाचना देते हुए वज्र मुनि की ध्वनि है। ग्यारह अंग कहाँ पढ़े? पूर्वगत श्रुत भी इसने कहाँ पढ़ा? अहो! आश्चर्य है! महान् आश्चर्य है! कि यह वाचना दे रहा है। उपयोग पूर्वक गुरुदेव ने जाना कि वज्र मुनि ने अपनी पदानुसारी मति द्वारा सूत्र सब धारण कर लिये हैं।
और इसी कारण हमारे द्वारा नित्य पढ़ाये जाने पर यह आलसी के समान बैठा रहता है। हमें देखकर यह लज्जित न हो जाय कि हमने इसे वाचना देते हुए सुन लिया है। अतः जोर से नैषेधिकी का उच्चारण करते हुए प्रवेश किया।
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