________________
वज्र स्वामी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
नाऽपमान्यस्ततः सङ्घो जिनेन्द्रेणापि योऽर्च्यते । जिस संघ की जिनेद्र भी अर्चना करते हैं, उसका अपमान कदापि नहीं करना चाहिए।
माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भ्राता, पत्नी, बहन, मित्र ये सभी अपने-अपने कर्म की अवधि तक ही रहते हैं, बाद में कुछ भी नहीं है। अनंत भवों में जीव को अनन्त बार अनन्त माताएँ प्राप्त हुई हैं, फिर संघ का अपमान करके उस माता के प्रेम से क्या? माता का तिरस्कार करने पर तो उसे थोड़ा ही दुःख होगा। फिर हो सकता है, मेरे प्रेम से वह भी दीक्षा ले लेगी। इस प्रकार विचार करके वह महात्मा वज्र चित्र की तरह स्थिर बैठा रहा। क्षीण मोह वाले के समान स्नेह-रहित होते हुए उसने माता को देखा भी नहीं।
तब राजा ने सुनन्दा से कहा - हे भद्रे! तुम अब बस करो। क्योंकि तुम्हारा यह पुत्र तुमसे अंश मात्र भी नहीं माना। फिर राजा ने गुरु से कहा कि अब आप उसे बुलाइये। गुरुदेव ने भी धनगिरि आर्य को पुत्र को बुलाने के लिए आदेश दिया। धनगिरि ने भी आचार्य के आदेश को मानकर हाथ फैलाकर रजोहरण को दिखाते हुए कहा - हे वज्र! अगर धर्म ध्वज को फहराने का अध्यवसाय है तो ध्वज ग्रहण करो। दुष्कर्म को निवारण करने वाले इस रजोहरण को ग्रहण करो। शीघ्र ही उस हलुकर्मी वज्र ने प्रसन्न होकर धनगिरि के हाथ से उस धर्म ध्वज को लेकर निज वंश में ध्वजा स्थापित की। संघ ने विचार किया निश्चय ही जिनेन्द्र-धर्म की जीत हुई है। वज्र धर्म ध्वज के बहाने से जयध्वज को उन्नत बनायगा। राजा भी सैकड़ों प्रलोभन से मोहित हुए बिना उस बालक को महात्मा की तरह धर्म ध्वज लेते हुए देखकर उसके विवेक से अत्यधिक खुश होते हुए परम आर्हती बन गया। अन्य बहुत से लोग भी यह देखकर जिनधर्मी बन गये।
सुनन्दा दुःखित होती हुई अपने कर कमलों में मुँह छिपाकर शीघ्र ही दिन के चन्द्रमा की तरह कान्ति-विहीन हो गयी। उसने विचार किया कि मैं अधन्य हूँ कि पति व सुत के द्वारा त्यागी गयी हूँ या फिर धन्य हूँ कि मेरी कुक्षि से ऐसा रत्न पैदा हुआ। मेरे भाई व पति ने तो पूर्व में ही व्रत अंगीकार कर लिया था। मेरा पुत्र भी दीक्षा लेने की इच्छा रखता है। फिर मैं क्यों नहीं दीक्षा ग्रहण कर लूँ? अब मेरे द्वारा अकेले घर में रहने से क्या फायदा? इस प्रकार की चिन्ता-परायणा होकर वह घर के प्रति विरक्त सी हो गयी। वज्र की उम्र तीन वर्ष की होने पर भी गुरुदेव द्वारा समस्त लोगों की साक्षीपूर्वक उसे प्रव्रजित किया गया। फिर उस नन्हे वज्रमुनि को वज्र-निधान की तरह लेकर कृत-कृत्य होते हुए मुनि अपने उपाश्रय में आ गये। सुनन्दा ने भी पुत्र-प्रेम के वशीभूत होकर अपना धन सात क्षेत्रों में नियोजित करके उनके पास दीक्षा ग्रहण कर ली। विहार करने में असमर्थ होने से बाल मुनि वज्र को स्थिरवासी मुनियों के पास वहीं छोड़कर गुरुदेव अन्यत्र विहार कर गये। आठ वर्ष के होने पर गुरु ने उन्हें अपने साथ ले लिया।
एक बार उन्होंने उज्जयिनी नगरी की ओर विहार किया। विहार करते हुए बीच में ही पृथ्वी पर मूसल धार बरसात हुई। बादलों ने अखण्डधार से वर्षा करके पृथ्वी पर प्रलय की रचना कर दी। बरसात के उपद्रव से डरते हुए गुरुदेव बरसती बरसात में कहीं भी यक्षादि के आयतन में सपरिवार रहे। तभी उस प्रदेश में से जाते हुए जृम्भक देव ने अपने पूर्व भव के मित्र रूपी वज्र-स्वामी को देखा। वज्र मुनि के सत्त्व की परीक्षा करने के लिए उस देव ने संपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति करने वाले एक वणिकों के सार्थ को वहाँ स्थित किया। वृष्टि की निवृत्ति करते हुए उन जृम्भक देवों ने क्षमाश्रमण गुरुदेव के पाद-युगल नमस्कार करके कहा - प्रभु! वज्र नामक क्षुल्लक मुनि को अभी हमारे संविभागवत की अनुपालना के लिए भेजिए। गुरुदेव ने आज्ञा दी - वत्स! वज्र! शीघ्र ही जाओ। इनकी समाधि को धारण करो। दान से ये श्रेयस् का अर्जन करें। आवश्यकी क्रिया करके पात्र लेकर वज्र मुनि समितिगुप्ति में सम्यग् उपयोगपूर्वक निकल गये। बाहर निकलते ही आकाश से अति सूक्ष्म परिमाण वाली लीख से भी छोटी-छोटी जल बूंदों को आकाश से गिरते हुए देखा। तब अप्काय की विराधना के भय से श्रृंगार से प्रशान्त तथा
185