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सम्यक्त्व प्रकरणम्
इलाची पुत्र की कथा हैं, पर यह नटी तो हमारी हमेशा से अक्षय निधि की तरह है। अगर तुम्हें इससे सम्बन्ध जोड़ना है, तो नट बनकर हम में शामिल होना होगा और हमारी नट-शिल्प-विद्या को सीखना होगा। तब पूर्व भव के सम्बन्ध से उसमें अति रागवान् होता हुआ जन-अपवाद, लोक-मर्यादा आदि का तिरस्कार करता हुआ वह कुबुद्धि युक्त होकर शीघ्र ही उन नटों में शामिल हो गया। मानो उन्हीं का जाति - भाई बन गया। उनसे भी ज्यादा कुशलता पूर्वक व शीघ्र ही नट - विद्या को सीख लिया। तब नटों ने उससे कहा - इलापुत्र! अब तुम इस नटी को पाने के लिए विशाल धन राशि अर्जित करो। उसने भी उनके वचनों को स्वीकार कर लिया।
वह भी अपने नट - कला की सामग्री से युक्त पेटी उठाकर धनार्जन के उपाय के लिए वेन्नातट पुर गया। उसकी सम्पूर्ण घटना जानकर कौतुक से राजा ने भी उसे बुलाकर कहा - कल तुम मेरे सामने अपनी कला का प्रदर्शन करना। इलापुत्र भी प्रातः अपनी सामग्री के साथ वहाँ आया। राजा भी रानी के साथ नाट्य-लीला देखने के लिए बैठ गया। नटों द्वारा आकाश को छुने वाले चार बाँस चारों दिशा में गाड़े एवं उनमें चार रस्सियाँ बांधी। उसके ऊपर एक बड़ा काष्ठफलक रखा। उसके दो-दो लोह की कील लगा दी। वादिंत्र एक ही काल में नाट्य को देखने के लिए लोकों को बुलाने के लिए तेज स्वर में बजाया। इलापुत्र ढाल व तलवार लेकर व्यग्र हाथों वाला छिद्र सहित पादुका पैर में पहनकर उस पर चदा। वह नटकन्या उस वंशमूल में स्थित गायिका-नटकन्याओं के बीच अद्भुत ग्राम राग स्वर को गाने लगी। वह इलापुत्र विशाल जन समूह द्वारा अंतःकरण सहित देखे जाते हुए वंशाग्र पर ढाल तलवार के साथ नृत्य करने लगा। उन कीलों पर पादुका छिद्रों को रखकर वह सात कदम पीछे व सात कदम सामने चलने लगा। दूसरी बार उसने और तेज गति से किया। उसके नितान्त अतिशायी नाटक को देखकर लोग इतने रञ्जित हुए कि अपना सर्वस्व दान करने के लिए तत्पर हो गये। पर राजा के द्वारा दिये जाने पर ही उस महान् आत्मा को कुछ दिया जाय। पर प्रतीक्षा करने पर भी राजा के न दिये जाने पर वे अपने-अपने धन को बलात् हाथ में धरे रहे।
राजा ने उस नटी को देखकर उसमें अनुरक्त होते हुए विचार किया कि अगर यह इलापुत्र ऊपर से गिरकर मर जाय, तो मैं इससे विवाह कर लूँगा। इलापुत्र के नीचे उतरकर राजा के सामने खड़े रहने पर राजा ने कपटपूर्वक इलापुत्र से कहा - मैंने अच्छी तरह नहीं देखा। अतः वापस करो। यह सुनकर सभी लोगों का मुख काला पड़ गया। इलापुत्र ने तो धन के लोभ से पुनः वैसा ही किया। पुनः उसके गिर जाने का आकांक्षी राजा दुसरी बार राजा के सामने खड़े रहने पर उसे वह क्रिया फिर से करने को कहने लगा। तब सभी लोक राजा की दुष्टता को समझ गये। इलापुत्र ने तो धन के लोभ से पुनः उस प्राणघातक नट-क्रिया की, कहा भी गया है -
प्राणिभिर्लोभमूर्छालैः किमेकं क्रियते न वा । लोभ से मूर्छित प्राणियों द्वारा क्या एक को [बार बार किया जाता है या नहीं?
राजा ने विचार किया कि इसके अभ्यास की दृढ़ता अद्भुत है। यह तीसरी बार करने पर भी नहीं गिरा। पुनः दूषित मन वाले राजा ने कहा - अगर चौथी बार करोगे, तो तुम्हारी दरिद्रता का नाश कर दूंगा। यह सुनकर सभी लोग उस प्रकार राजा की विचारधारा को जानकर राजा से विरक्त हो गये। साक्षात् क्रोध भी था। उसको देने के लिए प्रवृत्त भी थे। इलापुत्र भी जान गया कि राजा दुराशय युक्त हो गया है। यह भी नटी में लुब्ध होकर मेरी मृत्यु चाहता है।
तभी इलापुत्र ने वंश पर स्थित नृत्य करते हुए समीप ही किसी धनिक के घर में भिक्षार्थ आये हुए एक साधु को देखा। हाथों में कंगन, पाँवों में नुपुर, कमर में कटिमेखला को धारण किये, धुंघरु की आवाज के द्वारा कामदेवों के सोये हुए मन को शीघ्र ही जागृत करती हुई, भराव युक्त उन्नत वक्षस्थल को मोतियों की माला के स्पर्श से तृप्त
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