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सम्यक्त्व प्रकरणम्
आर्यरक्षित आचार्य की कथा
सामने जाकर उसको हाथी पर बैठाकर महा उत्साह पूर्वक उसे नगर में प्रवेश कराया। पहले उस ब्राह्मण पुत्र को बाह्य-शाला में उतारा। वहाँ राजा ने उसे महादान दिया। उसके बाद अन्य नागरिक जनों ने भी दिग्जय करके आये हुए राजा की तरह उसको आ-आकर वस्त्रादि अनेक उपहार भेंट किये। राजा ने उसके आगमन से सभी लोगों को तोरण बाँधने का आदेश दिया था, जिसे देखकर ऐसा लगता था कि अपनी-अपनी गरदन में आभरण धारणकर गृही भी मुस्कुरा रही है । छोटी-छोटी मुक्ताओं की लड़ियों हार की तरह घरों के दरवाजों को पहनायी गयी थी । मानो मंगल स्वयं उसे देखने के लिए साक्षात् वहाँ आया हो। दूसरे भाइयों द्वारा भी द्रव्यमांगलिक आदि किया गया। इस प्रकार की श्री - दशा को ग्रहण करते हुए उसे कुछ दिन व्यतीत हो गये । राजादि द्वारा अभ्यर्चमान उसको देखकर उसके भाई भी उसे अपने गोत्र का अलंकार मानते थे। तभी उसने विचार किया कि - हाय! मैंने अभी तक मात का अभिवादन तो किया ही नहीं। मैं इतने समय तक कैसे प्रमाद रूपी मदिरा के वश हो गया । वत्स! वत्स! इस प्रकार से मेरे प्रति अनवरत बोलते हुए जिसके होठ भी सूखते नहीं थे। विचित्र प्रकार का अत्यधिक स्नेह मेरे प्रति उसके मन में भरा रहता था । उस अम्बा के पास इतने बिलम्ब से जाने के कारण वो मेरी राह देख रही होगी । अहो ! मैं दुष्पुत्र हूँ। परभाग अर्थात् उत्कर्षता को प्राप्त होकर उस स्नेहवल्ली को मैंने भुला दिया।
इस प्रकार विचारकर के शीघ्र ही उठकर आर्यरक्षित दिव्य अंग राग, सुगन्धित परिजान पुष्पों से आयुक्त होकर, महामूल्यवान पर अल्प, पुरुषोचित आभूषणों से अलंकृत होकर ताम्बूल द्वारा मुख के अग्रिम दाँतों को माणिक की तरह लाल बनाता हुआ, सूर्य के ताप को रोकनेवाले अपने यश द्वारा उज्ज्वल छत्र को धारण करके वह गृही शीघ्र ही अपने घर की ओर चला । स्नेह से तर नयनों वाले उसने प्रीतिपूर्वक माता को नमस्कार किया । माता ने भी प्रत्यक्ष में कहा- वत्स ! अजर-अमर बनो । तब पुत्र- प्रेम, वात्सल्य युक्त उल्लाप आदि को संभ्रम युक्त न जानकर अपनी माता को उस प्रकार से विपरीत जानकर उसने कहा- माता ! मेरे अध्ययन से पूरा नगर विस्मित है। लेकिन तुम स्नेह से क्यों नहीं बोलती हो ? सर्वविद्यामय मुझको साक्षात् ब्रह्मा की तरह मानते हुए राजा मेरा सत्कार करता है। फिर माँ! तुम्हें संतोष क्यों नहीं है ? रुद्रसोमा ने कहा- वत्स! तुम्हारे द्वारा ऐसे शास्त्र पढ़ने से क्या ? हिंसा - शास्त्रों को पढ़कर तो नरक में ही जाया जाता है। अतः इस अध्ययन से तुम्हें भावी नरकगामी मानकर मैं दुःखी हूँ। अतः तुम्हारी यह भूति भी मुझे अभूति की तरह लगती है । अगर तुम दृष्टिवाद पढ़कर आये होते, तो मेरा हर्ष कहीं नहीं समाता । मिथ्यादृष्टियों को दुर्लभ जिसका श्रवण मात्र भी स्वर्ग व अपवर्ग प्रदान करने वाला है, उसके पठन का तो कहना ही क्या ! तब आर्यरक्षित ने विचार किया कि अन्य जनों के खुश होने से क्या फायदा? मेरी मां जिससे खुश होती है, अब उसी अध्ययन (शास्त्र) को मैं पढूँगा । दृष्टिवाद का नाम व अर्थ भी मुझे अच्छा लग रहा है। जिसके द्वारा देखा जाता है वह दृष्टि है उसका तत्त्व निर्णय - वह वाद है। इस प्रकार विचारकर वह बोला- माता ! मुझे गुरु का नाम बताओ, जो दृष्टिवाद का ज्ञानप्रदान करते हो। मैं उसे भी पढ़कर आऊँगा । यह सुनकर अमृतबूँदों से सिञ्चित के समान माँ ने उल्लसित - प्रेमपूर्वक आर्यरक्षित से कहा- हे वत्स! अपने ईख के बाड़े में दृष्टिवाद का प्रदान करने वाले शिष्य-वत्सल तोसलिपुत्र नामक आचार्य हैं। उनके पाद-पनों में भ्रमर की तरह होकर भक्ति करना । तब वे तुम्हें दृष्टिवाद का अध्ययन करवायेंगे। तब आर्यरक्षित ने माता से कहा दृष्टिवाद पढ़ने के लिए उनके पास विद्यार्थी की तरह कल प्रातः जल्दी ही चला जाऊँगा ।
इस प्रकार दृष्टिवाद के नामार्थ को पुनः पुनः चिन्तन करते हुए सम्पूर्ण रात्रि बिना नींद लिये ही व्यतीत हो गयी। प्रातः उठकर माता को प्रणाम करके आर्यरक्षित "माँ! जाता हूँ" इस प्रकार कहकर घर से निकल गया। अपने पुत्र के हित की आकांक्षा करती हुई माता ने भी आशा व्यक्त की कि हे वत्स ! शीघ्र ही दृष्टिवाद के पारगामी बनो । पुर के पास ही के गाँव में एक उत्तम ब्राह्मण उसके पिता का मित्र था । वह हाथ में नौ अखण्ड इक्षु-यष्टि एक
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