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आर्यरक्षित आचार्यकी कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् अनेषणीय भक्त-पान आदि को ग्रहण करते हुए और गृहस्थों को "मेरे गच्छ के हो" इस प्रकार ममत्व करते हुए तथा अन्य भी ज्योतिष, निमित्त, मन्त्र, तन्त्र आदि का प्रयोग करते हुए छः जीव निकाय का उपमर्दन करते हुए कैसे भगवान के वचन को नीचा नहीं करते हैं? अर्थात् भगवद् वचन की अवहेलना करते हैं।।४।७२।।
___ अब सुगृहीत नामधारी आर्यरक्षित द्वारा चैत्य निवास अनुज्ञात होने पर भी कैसे आगम से पराङ्मुख प्ररुपित हुआ? इस प्रकार कहनेवालों को उत्तर देते हुए कहते हैं -
मन्नति चेइयं अज्जरक्खिएहिमणुनायमिह केई । ताण मयं मयबज्झं जम्हा नो आगमे भणियं ॥५॥ (७३)
आर्यरक्षित ने चैत्य को मानते हुए चैत्य में रहने का अनुज्ञात होने पर भी उनके मत को मत बाह्य अर्थात् आगम के बहिर्भूत कैसे कहते हो? उत्तर में कहा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा।।५।।७३।।
तो फिर क्या कहा? इसे बताते हैं - एयं भणियं समए इन्देणं साहजाणणनिमित्तं ।
जक्खगुहाए दारं अन्नमुहं ठावियं तइया ॥६॥ (७४) सिद्धान्त में प्रभु द्वारा साधु को यक्ष व्यंतर की गुफा अर्थात् व्यंतर आदि किसी देव के चैत्य में ठहरने का कहा है। जिन चैत्य में ठहरने का नहीं कहा। यह अर्थ एक कथानक से जानना चाहिए, जो इस प्रकार है -
आर्यरक्षित आचार्य की कथा लवण समुद्र में रहे हुए पोत के समान जम्बू के उपपद के समान एक जंबूद्वीप है। मेरु पर्वत के आधार से घूमते हुए ज्योतिषी चक्र की तरह जहाँ कूप स्तम्भ से लिपटी हुई श्वेत पताका थी। वहाँ अत्यधिक धान्य से मनोरम भरतक्षेत्र है।
समृद्धि के त्राण हेतु रूप राजाओं की जन्मभूमि वाला पारावार की तरह अपार अवन्ती देश वहाँ स्थित था। उस अवन्ती देश में अप्रतिम भूति वाला दशपुर नामक नगर था। जिसकी दसों ही दिशाएँ सार रूप पदार्थों से निर्मित थी। अनन्त सामन्तों के झुके हुए मस्तक रूपी मालाओं से अर्चित हतशत्रु के यथार्थ नाम वाला वहाँ का राजा था। निष्कलंक वाली. सवत्ति वाली. सदा कांति से उद्यत रहने वाली, नित्य नयी विधि की मूर्ति की तरह धारिणी उसकी वल्लभा थी।
उस-नगर में सोमदेव नामक ब्राह्मण हुआ। राजा के द्वारा मान्य पुरोहित वह पुरजन का वत्सल एवं प्रख्यात था। उसकी पत्नी रुद्रसेना गण रत्नों की महोदधि थी। करुणा रूपी जल की तरंगिणी के समान वह अहंत धर्म के पथ की पथिका थी। भावि में तत्त्व के ज्ञाता एवं पवित्र क्रियावान् होनेवाले के रूप में उसने दो पुत्रों को जन्म दिया। पहले का नाम आर्यरक्षित तथा दूसरे का नाम फल्गुरक्षित था। आर्यरक्षित ने ब्राह्मणों का तीन सेर का मुंज का जनेऊ धारण किया, तब से पिता के पास से, जो कुछ भी वे जानते थे, वह सारा ज्ञान पढ़ लिया। वड़वानल की तरह शास्त्र रूपी महासमुद्र को पीने के लिए उसने पिता की आज्ञा से पाटलिपुत्र जाकर अध्ययन किया। षट् अंगी, चार वेद, मीमांसा, न्याय के विस्तार को, पुराण व धर्मशास्त्र को - इस प्रकार १४ प्रकार की विद्या पढ़कर महाप्रज्ञ होकर स्रष्टा की तरह उसमें रहे हुए रहस्यों को भी संपूर्ण रूप से चिरकाल के लिए शीघ्र ही उसने संचित कर लिया।
शास्त्र आदि को पार करके आया हुआ उसको जानकर राजा ने स्वयं पूरे नगर में पताकाएँ लहरवायीं। स्वयं
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