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धर्मरत्न योग्य के २१ गुण का वर्णन
४. लोक प्रिय अर्थात् लोगों को वल्लभकारी ।
५. अक्रूर।
६. भीरु अर्थात् जन - अपवाद से भयभीत |
७. अशठ अर्थात् सरल आशयवाला ।
८. सुदाक्षिण्य अर्थात् अच्छी चतुराई से युक्त |
९. लज्जालु अर्थात् प्राण जाने पर भी प्रतिज्ञा नही छोड़नेवाला ।
१०. दयालु ।
११. मध्यस्थ अर्थात् राग-द्वेष रहित ।
सम्यक्त्व प्रकरणम्
१२. सोमदृष्टि अर्थात् शान्तदृष्टि । दूसरों की वृद्धि देखकर ईर्ष्या न करनेवाला ।
१३. गुणानुरागी अर्थात् गुणों का बहुमान करनेवाला ।
१४. सत्कथ अर्थात् परपरिवाद में आत्मोत्कर्ष रहित और वह सुपक्ष युक्त सन्मार्ग का पक्षपाती।
१५. कार्य को करते हुए सुदीर्घकाल में होनेवाले अर्थ या अनर्थ को देखने के स्वभाववाला - सुदीर्घदर्शी ।
१६. विशेषज्ञ अर्थात् कृत्य-अकृत्य को जानने वाला।
१७. वृद्धानुग- वृद्धानुगामी अर्थात् वृद्ध बुद्धि से उपजीवी ।
१८. विनीत ।
१९. कृतज्ञ अर्थात् थोड़े से उपकार को भी बहुत माननेवाला ।
२०. परहित को करने वाला।
२१. लब्धलक्ष अर्थात् सर्वक्रियाओं में सुकुशल |
इस प्रकार इन इक्कीस गुणों से युक्त धर्मरत्न के योग्य होता है। यहाँ मध्यम एवं जघन्य एक, दो या तीन गुणों का अभाव होने पर भी धर्मरत्न के योग्य जानना चाहिए ॥ ६-७-८ ॥ ६६-६७-६८।।
।। इस प्रकार पूज्य श्री चक्रेश्वर सूरी द्वारा प्रारम्भ तथा उनके प्रशिष्य श्री श्री तिलकाचार्य द्वारा निर्वाहित सम्यग् वृत्ति में समर्थित द्वितीय धर्मतत्त्व पूर्ण हुआ । ॥
न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति, न मूकतां नैव जड स्वभावम् ।
न चान्धतां बुद्धिविहीनतां च, ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥१॥
लेखयन्ति नरा धन्या ये जिनागमपुस्तकम् ।
ते सर्वं वाङ्मयं ज्ञात्वा सिद्धिं यान्ति न संशयः ||२||
वे मनुष्य न तो दुर्गति को प्राप्त होते हैं, न मूकता को, न जड़ता को, न अन्धता को और न बुद्धिहीनता को प्राप्त होते हैं, जो जिन - वाक्यों को लिखते हैं । और विशेषरूप में जो जिनागम पुस्तक को लिखते हैं वे मनुष्य धन्य हैं। वे सभी वाङ्गमय को (सर्व जिनागमों को ) जानकर सिद्धि को प्राप्त करते हैं, इस में संशय नहीं है । (केवल कथा ग्रन्थाग्र ४४२६ सर्वतो ग्रन्थाग्र ४८०८ )
|| ३ || मार्गतत्त्व ||
द्वितीय धर्मतत्त्व की व्याख्या कर दी गयी । अब यह मार्गतत्त्व का अवसर है। इन दोनों में सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहा जाता है कि धर्म सन्मार्ग के अनुसार होना चाहिए । अतः मार्ग का प्रतिपादन करने के लिए उसी कड़ी
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