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सम्यक्त्व प्रकरणम्
धर्मरत्न योग्य के २१ गुण का वर्णन इस जगत् में कौन ऐसी स्वतन्त्रात्मा है जो अस्थान में स्खलित नहीं होती? इसी तरह हमारी बुद्धि भी स्खलित हो गयी।
इत्यादि भावना के द्वारा एकाग्र वह राजा भी भाव व्रत को प्राप्त करके क्षपक श्रेणी पर आरुढ़ होकर केवलज्ञान को प्राप्त हुआ।
उन चारों आत्माओं को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इस स्थिती को जानकर शासन देवता ने साधु वेष अर्पित किया। पास में रहे हुए व्यन्तर देवों ने उनके चारित्र से चमत्कृत होते हुए जिस बांस पर इलापुत्र स्थित था, उसे स्वर्ण-कमल के रूप में, परिवर्तित कर दिया। उस कमल पर लोकों को प्रतिबोध देने के लिए केवली इलापुत्र ने आसीन होकर उपदेश दिया एवं अपना पूर्वभव बताया।
. वसन्तपुर पत्तन में अग्निशर्मा नामक ब्राह्मण था। उसने एक बार धर्म-श्रवणकर गुरु के पास में व्रत ग्रहण किया। उसकी पत्नी ने भी उसके अनुराग से प्रवर्तिनी के पास व्रत ग्रहणकर अध्यापन किया, पर जातिमद नहीं छोड़ा। अग्निशर्मा ने भी स्थविर के पास सिद्धान्त पदा। पर पूर्वाभ्यास से भार्या पर अनुराग को नहीं छोड़ पाया। उन दोनों ने ही अपने-अपने उस महा-अतिचार की आलोचना - प्रतिक्रमण किये बिना ही चिरकाल तक व्रत
लकर अनशन करके मरकर देवलोक को प्राप्त किया। वहाँ से च्यवकर अग्निशर्मा का जीव में इलापुत्र बना तथा मेरी पत्नी यह नटी बनी। अनालोचित कर्म के कारण मेरे लिए पत्नी का स्नेह दुःखद हुआ। उनका चरित्र सुनकर बहुत से जन प्रबुद्ध हुए। वे चारों भी भावना के प्रभाव से पाप से निर्मल बनकर केवली होकर धर्मव्याख्यानों द्वारा अनेक भवी जीवों को प्रतिबोधित करके सुविशदसुख रूप मोक्ष को प्राप्त किया। अतः सभी को प्रयत्न करना चाहिए।॥४॥६४।।
इस प्रकार भावना में इलापुत्र की कथा संपन्न हुई। अब धर्म के दायक व ग्राहक के अल्पत्व को कहते हैंरयणत्थिणो ति थोया तद्दायारो ति जहव लोगंमि । इय सुद्धधम्मरयणत्थि दायगा दढयरं नेया ॥५॥ (६५) रत्न आदि को ग्रहण करने व देने वालों की तरह धर्मरत्न ग्राही भी लोक में बहुत थोड़े ही होते हैं।
तत्त्वार्थ यह है कि जैसे - तृण, इन्धन, कण, लवण आदि असार द्रव्यों के ग्राहक व दाता बहुत होते हैं, वैसे ही कुधर्म ग्राही उस तरह के भव के अभिनन्दी आदि से प्रचुर होते हैं। पुनः धर्मरत्न को ग्रहण करने वाले बहुत थोड़े होते हैं।
अब धर्मरत्न-योग्य को तीन गाथाओं से कहते हैं - धम्मरयणस्स जुग्गो अक्खुद्दो रुवयं पगइसोमो । लोगप्पिओ अकूरो भीरु असढो सुदक्खिन्नो ॥६॥ (६६) लज्जालुओ दयालू मझत्थो सोमदिट्ठी गुणरागी । सक्कहसुपक्खजुत्तो सुदीहदंसी विसेसन्लू ॥७॥ (६७) युड्डाणुगो विणीओ कयन्नुओ परहियत्थकारी य । तह चेव लद्धलक्खो इगवीसगुणेहिं संजुत्तो ॥८॥ (६८) धर्मरत्न के योग्य गुण इस प्रकार है - १. अक्षुद्र-अतुच्छ अर्थात् गम्भीर आशयवाला। २. रूपवान। ३. प्रकृति सोम्य अर्थात् स्वभाव से ही चन्द्रमा के समान आनन्दकारी।
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