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इलाची पुत्र की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
बनाती हुई, दान के लिए हड़बड़ाने से जिसका आँचल गिर गया हो, ऐसे घबराये हुए मुखचन्द्र से, विपुल श्रेष्ठ शृंगार से युक्त सुन्दरी द्वारा विविध प्रकार के अमूल्य आहार को देने के लिए तैयार उस स्त्री को देखकर भी मात्र पिण्ड विशुद्धि की ओर दृढ़ मन वाले होकर ध्यान देते हुए वे मुनि चित्त से निर्विकारी, जितेन्द्रिय की तरह थोड़े से भी चलित न हुए।
यह देख इलापुत्र ने संवेद को प्राप्त होकर विचार किया अरे ! इस जीवलोक में महामोह से मैं विजृम्भित हुआ । मैं कैसे समृद्धिशाली गुणशाली कुल में उत्पन्न हुआ था । कितनी ही इभ्य श्रेष्ठि की कन्याओं द्वारा मैं चाहा गया था। पर मैं इस नटी में आसक्त हुआ। जिसके संग की स्पृहा से ही मैं इस प्रकार के अनर्थों का भाजन बन गया । हाय! अकार्यकारी पाप को ही मेरे द्वारा देखा गया। अज्ञान से अंधे होकर मैंने पिता को उस प्रकार की व्यथा पहुँचायी। मैंने न तो अपनी तुच्छता देखी, न ही स्वजनों द्वारा कथित सुना । न कुल क्रम को माना, न ही अपने गुणों की ओर ध्यान दिया। नीर के प्रवाह की तरह मैं नीचगामी बन गया । मुझसे भी ज्यादा अकार्य इस राजा ने किया है। अप्सराओं के समान अनेक राजकन्याओं से विवाह करके स्वेच्छापूर्वक विषय - सुख को भोगते हुए भी तृप्त नहीं हुआ । इस समय अस्पृश्य नाटक में अरंजित होकर यह राज्यभ्रंश और अपकीर्ति को शीघ्र ही प्राप्त करेगा । वास्तव मोहराज की ललित आज्ञा सर्वत्र अस्खलित है। मोह के बिना एकमात्र ये साधु ही आत्मा रूपी उद्यान में एक चित्त वाले हैं। इस प्रकार श्रेष्ठ श्रृंगार युक्त स्त्री को देखते हुए भी थोड़ा सा भी मन मात्र से विकृति को प्राप्त नहीं हुए। धन्य है ये निर्मल ब्रह्मचर्य के धारी ! अब भी इन्हीं के उज्ज्वल मार्ग को स्वीकार करूँगा ।
इस प्रकार भावना भाते हुए घाती कर्म के विगलित होने से भावचारित्र के योग से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । वह नटी भी राजा के भाव को जानकर मन में विचार करने लगी- धिक्कार है मेरे रूप लावण्य को ! धिक्कार है मेरे ललित लावण्य को। मेरे लिये एक ने तो काम से मोहित चित्तवाला होकर कुल क्रम, संपत्ति, माता-पिता आदि को छोड़ दिया और दूसरा यह राजा है, जो कुछ प्रयास कर रहा है। जिससे विवेकी मनुष्य कुछ कह नहीं पा रहे हैं। इस प्रकार विवेकचक्षु का वरणकर इस प्रकार विचार करते हुए अनर्थ रूप कन्दली के कन्द [ केले की गांठ ] की तरह भवों का सर्वथा त्याग करने के लिए संसार के वैराग्य से तरङ्गित मन वाली उस नटी ने भी कर्मों को क्षीण करके केवलज्ञान प्राप्त किया।
नाट्य को देखने के रंग में रंगी हुई पट्टरानी ने भी राजा के दृष्टि विकार, इंगित आदि द्वारा भावों को जानकर विचार किया - हा! हा! सम्राट होते हुए भी काम से चित्तवाले ये ग्रह के आवेश के वश में किये हुए की तरह अकृत्य को भी नहीं जानते हैं। मेरे सान्निध्य में भी इन्होंने नहीं सोचा कि कहाँ मैं महाराज और कहाँ यह लङ्घ पुत्री ? कहाँ उनके ये विचार! मूढ़ होकर उन्होंने भव को बढ़ाने वाले इस तरह के विडम्बना फल को जानकर भी विषयों में विराग नहीं हुआ। इस प्रकार महाबुद्धि से भावना की प्रकर्षता को प्राप्त कर रानी ने भी उसी समय केवलज्ञान की सम्पत्ति को प्राप्त किया।
निजवंश को लज्जित करने वाले जनता के विगत राग को अपने प्रति देखकर राजा ने भी विरक्त आत्मा बनकर चिन्तन किया - अहो! मेरा प्रभुत्व चला गया। मेरी विवेक दृष्टि मारी गयी। मैंने इस प्रकार के लोक विरुद्ध
कृत्य को धारण किया । जैसे- वर्षा से समुद्र एवं इन्धन से अग्नि का पेट नहीं भरता । उसी प्रकार आत्मा भी सर्व वैषयिक सुख से अतृप्त ही रहती है। इस इलापुत्र ने तो इस नटी में मुग्ध होकर कुल, ऐश्वर्य आदि का त्याग कर दिया। मेरे पास धनोपार्जन के लिए आया पर मैंने भी इसके समान ही किया । इसीलिए कहा जाता है।
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कोऽत्र स्वतन्त्रात्मा निवसेद् भवचारके । यत्रास्थाने स्खलन्त्येवमस्माकमपि बुद्धयः ॥
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