Book Title: Samyaktva Prakaran
Author(s): Jayanandvijay, Premlata N Surana
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 219
________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् इलाची पुत्र की कथा ___ इस प्रकार महान् कष्ट में भी उनको शुद्ध अभिप्राय युक्त जानकर श्रेष्ठ जाति के सोने की तरह उनको कस के पत्थर पर सफल कसौटी मिली। उनके सत्त्व से रंजित होकर अशुचि पुद्गलों का संहार करके सौगन्धी से आकृष्ट भँवरों की तरह देवों ने पुष्प वृष्टि की। फिर मुनिवेश को त्यागकर अपना स्वरूप प्रकाशित किया। नन्दीषण मुनि की तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करके उनको कहा - शक्रेन्द्र द्वारा की हुई आपकी प्रशंसा से भी कहीं ज्यादा आपका वैयावृत्य के लिए किया गया उद्यम है। अतः आप धन्य हैं। आपने सुलब्ध नर जन्म को कृतार्थ किया है। हे स्वामी! मेरे अपराधों को माफ करें। हे क्षमामय! हे तपोमय! हे महासत्त्व! मेरे पुण्य के लिए आप किसी भी वरदान का वरण करें। नंदीषेण मुनि ने कहा - मैंने अतिदुर्लभ जिनधर्म को पा लिया है। मेरे लिए इतना ही काफी है। मुझे अन्य किसी से कोई प्रयोजन नहीं है। तब उनके निस्पृह भाव से विशेष रूप से प्रसन्न होता हुआ देव उनके गुणों की स्तुति में तत्पर होता हुआ देवलोक को चला गया। नन्दीषेण मुनि भी अपने उपाश्रय में चले गये। साधुओं द्वारा पूछने पर उन्होंने घटित हुआ सारा वृतान्त बतला दिया। इस प्रकार संयम योग के द्वारा स्व को भावित करते हुए तथा पर की वैयावृत्य करते हुए उन्होंने बारह हजार वर्ष बिता दिये। तब उन श्रेष्ठ मुनि ने अपना अन्तिम समय जानकर अनशन ग्रहण किया और अपनी कुरूपता रूपी दुर्भाग्य का स्मरण करके निदान किया कि यदि मेरे तव-नियमब्रह्मचर्य आदि का फल मिले, तो मैं मरकर रूपवान, धनी तथा स्त्रियों का वल्लभ बनूं। इस प्रकार निदान करके वे महाशुक्र स्वर्ग में शक्रेन्द्र के सामानिक देव हुए। वहाँ से च्युत होकर सौर्यपुर में अन्धकवृष्णि राजा की सुभद्रा महादेवी की कुक्षि में पुत्र रूप से अवतरित हुए। समुद्र की तरह अक्षुभित, विजय प्राप्त होने पर भी शान्त सागर की तरह पूरण, तथा हिमवान पर्वत की तरह धरण युक्त चन्द्र की तरह शीतल निर्मल यदुवंश में नौ मास तथा कुछ दिन व्यतीत होने पर उत्पन्न हुए। उनका नाम वसुदेव रखा गया। उसके सौभाग्य सौरभ के बारे में क्या कहा जाय? वह तो अद्भुत था। तीन जगत में भी उसके नमूने के समान कोई नहीं हो सकता। कन्याएँ ऐसे पति की याचना करती थी। मध्यम उम्र की स्त्रियाँ भी वैसा ही पति चाहती थी। वृद्धा स्त्रियाँ तो इस प्रकार से याचना करती थी कि मरकर अगले भव में इसी की पत्नी बनें। मैं पहले इनकी पत्नी बनूँ इस प्रकार विद्याधरों तथा नरेन्द्रों की सैंकडों कन्याएँ विवाह के लिए चिंतन करती थी। इस प्रकार उस दिव्य श्री को भोगकर श्री कृष्ण के पिता बनकर क्रम से कर्म विनिर्मुक्त होकर सिद्धि-सुख को प्राप्त करेंगे। विद्याधरियों व नृपकन्याओं में जो पहले पत्नी बनने की होड़ थी, वह वसुदेव के पूर्वभव में आचीर्ण तप का प्रभाव था। उस नन्दीषेण की तरह नित्य तप से दुःकृत कर्म जाल का क्षय करना चाहिए। निदान रहित तथा भावप्रधान होकर ही तप करने से शीघ्र ही यथेष्ट सिद्धि प्राप्त होती है। इस प्रकार तप में नन्दीषण की कथा पूर्ण हुई। अब भाव पर इलाचीपुत्र की कथा को बताते हैं - ___ || इलाचीपुत्र की कथा || इलावर्द्धन नामक एक नगर था। वहाँ का जन समुदाय श्रीफल के ऊपर की छाल की तरह ऊपर से कठोर तथा अन्दर से सरल था। वहाँ इभ्य नामक श्रेष्ठि रहते थे। जैसे - समुद्र की जल बूंदों को गिना, नहीं जा सकता, वैसे ही उस सेठ के घर रत्न-राशि की कोई गिनती ही नहीं थी। उस सेठ की प्रिया का नाम धारिणी था, जो गुणों में आदर भाव रखती थी तथा दोषों की अवज्ञा करने के कारण दोष उससे दूर ही रहते थे। सुख सागर में निमग्न होकर उन दोनों के दिन बीत रहे थे। केतु ग्रह के समान उनकी अपुत्रता दुःख का कारण थी। उस नगर में इला 170

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