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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नंदिषेण की कथा अगर इस कुरूप व दुर्भग के साथ मेरा विवाह करेंगे, तो मैं कुएँ में गिर कर जान दे दूंगी। नन्दीषेण के कानों में शब्द पिघले हुए शीशे की तरह गिरे। लटकते हुए आम को देखते हुए बन्दर की तरह उसका मन अधीर हो उठा। तब उसके मामा ने कहा - अधीर मत बनो। मैं तुम्हें द्वितीय पुत्री दूंगा। क्योंकि -
स्थिराणां श्रीर्भवेत् खलु । अर्थात स्थिर मति वालों को लक्ष्मी की प्राप्ति होती ही है। जब उससे कहा गया, तो उसने भी नन्दीषण को पति-रूप में नहीं चाहा। सकर्णः कोपि किं जीवः स्पृह्येन्नरकं क्वचित् ? अर्थात् श्रुतिशील पुरुष क्या कभी नरक की स्पृहा करता है? इसी प्रकार सभी पुत्रियों ने उससे विवाह के लिए मना कर दिया। कहा भी है - गतानुगतिको लोकः प्रायेण भवतीह यत् ।। प्रायः लोग गतानुगतिक ही होते हैं। एक के ना करने पर सभी ना बोल देते हैं।
अपने नासिका-रन्ध्रों को फुलाकर स्व-सौभाग्य से गर्वित होते हुए गाँव की तरुणियाँ भी उसका तिरस्कार करते हुए कहती अहो! इसके समान कोई नरशेखर नहीं है! इस प्रकार गाँव के लोगों ने भी उसका उपहास किया, जिससे वह अत्यन्त खेदित हुआ। मामा ने पुनः कहा - मैं अन्य गाँव से किसी की पुत्री माँगकर लाऊँगा। पाँव प्रमाण जूती के समान तुम्हारे लायक कोई लड़की अवश्य होगी। अतः धैर्य धारण कर। यह सब सुनी-अनसुनी करते हुए अत्यन्त दुःखित होकर नन्दीषेण ने विचार किया - धिक्कार है मुझे। जिससे कि मेरे ही मामा की पुत्रियाँ तक ने मुझे नहीं चाहा। तो जिसने मुझे देखा ही नहीं वे दूसरी कन्याएँ मुझे कैसे चाहेंगी? तब विरक्त होकर मामा की आज्ञा लिये बिना ही नन्दीषेण रत्नपुर की ओर चला गया। वहाँ सभी नागरिकों को अपनी-अपनी ललनाओं के साथ ललित क्रीड़ा करते हुए देखा। वे लोग विभिन्न अलंकारों से सज्जित देवों व देवियों के समूह की तरह लग रहे थे। उन्हें देख नन्दीषण ने स्वयं की विशेष रूप से निन्दा की। मुझ पर किसी भी युवती की दृष्टि की कोई संभावना नहीं है। दुःख की संवेदना के लिए ही विधाता ने मुझे चारों ओर से घेरा है। अतः मेरे जीने का क्या फायदा? मैं अभी ही मर जाता हूँ। इस प्रकार विचार करके फाँसी खाकर मरने की इच्छा से वह उपवन में आया। वहाँ उसने एक लतागृह में धर्म के मूर्तिमान स्वरूप में स्थित अतीन्द्रिय ज्ञान युक्त एक मुनि को देखा। नन्दीषेण ने आनन्द युक्त होकर भक्ति से उन्हें वन्दना की। ज्ञानातिशय से उसके आशय को जानकर मुनि ने कहा-भद्र! कर्मों को और अधिक बांधने का साहस मत करो। क्योंकि.
जीवेन सह कर्माणि यान्त्यन्यत्रापि यद् भवे । जीव के कर्म उसके साथ अन्य भव में भी जाते हैं।
तुम ऐसा मानते हो कि इस प्रकार की स्थिती मेरे दौर्भाग्य के कारण है। तो फिर जड़ से उखड़े वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं उसी तरह तुम भी मृत्यु का वरण मत करो। तुम्हारे द्वारा जो अनुभूत कर्म है, वह तप अथवा दुष्कर तप द्वारा क्षय करके भस्मीभूत कर दो, जिससे वे पुनः उदय में न आ सकें। इस प्रकार मुनि ने उसको धर्मदेशना देकर प्रति बोधित करके कर्म-इन्धन को जलाने के लिए दीक्षा दे दी। फिर सूत्रार्थों को पढ़कर सत् संवेग से रंजित होकर, पाँच समिति तीन गुप्ति युक्त साध्वाचार में तत्पर हुआ। प्रवर्धमान वैराग्य से भाग्य की प्रकर्षता के संचय से कलल में आसक्त भ्रमर की तरह वह तप में रत होकर शरीर से निराकांक्ष हो गया। गच्छवास को स्वीकार करके सिद्धवास को पाने के लिए प्रतिदिन साधु की वैयावृत्य का अभिग्रह ग्रहण किया। बिना थके बिना विश्रान्ति लिए वह सतत अन्न-पानी, भेषज, शरीर की विश्रांति आदि क्रियाओं द्वारा साधुओं की वैयावृत्य करने लगा। संतोष रूपी अमृत
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