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नंदिषेण की कथा
ही कृत कर्मों को भोगा है।
रौद्रदत्त के पुत्र ने कहा- अगर मेरे भाग्य से गुरुदेव पधार जायें, तो लोकाग्र पर चढ़ने के सोपान स्वरूप दीक्षा को ग्रहण करूँगा । तब विचरण करते हुए सुहस्ति गुरु वहाँ पधारे। भाग्योदय के समय मनुष्य द्वारा चिन्तित ही फलीभूत होता है। तब जैसे ब्राह्मण श्राद्ध में जीमने के लिए उत्सुक होता है, वैसे ही महेश्वरदत्त भी अपनी माता के साथ गुरुदेव को वंदन करने के लिए आया । जैसे पिपासु अमृत को देखकर तथा दरिद्र धन को देखकर प्रसन्न होता है, वैसे ही दीक्षा - पिपासु शुद्ध सम्यक्त्वी वह गुरु को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ । प्रणाम करके गुरु के सामने सुशिष्य की तरह बैठ गया । श्रुत रूपी कुएँ में डुबकी लगाने के समान उसने गुरु मुख से व्याख्या सुनी। वस्त्र में समाये हुए रंग की तरह वह व्याख्या उसके हृदय में प्रवेश कर गयी। तब उसने अपनी माता सहित उनके पास व्रत ग्रहण किया।
सम्यक्त्व प्रकरणम्
माता तथा पुत्र- दोनों ने शुद्ध श्रमणपर्याय का अनुपालन करके स्वर्ग में देवत्व को प्राप्त किया। वहाँ से क्रमशः मोक्ष को प्राप्त करेंगे।
उस नर्मदा सुन्दरी प्रवर्तिनी ने भी अपने आयुष्य का अन्तिम समय जानकर अनशन करके देवलोक में दिव्य महर्द्धिक देवत्व को प्राप्त किया । वहाँ से च्युत होकर अपर महाविदेह में राजपुत्र मनोरथ के रूप में पैदा होकर अति विशाल साम्राज्य का न्यायपूर्वक उपभोग करके दीक्षा लेकर कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त करके भव्य जीवों को प्रतिबोध करते हुए सिद्धि रूपी सौध को प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार नर्मदासुन्दरी की तरह सभी स्त्रियों को कष्ट पूर्वक भी शील का सम्यग् अनुष्ठान करना चाहिए। पुरुषों को उसके चाचा वीरदास की तरह शील पालना चाहिए।
इस प्रकार भद्रबाहु प्रणीत वसुदेव हिण्डी के आधार से विरचित इस लोक में नर्मदासुन्दरी का यह निर्मल चारित्र श्रोताओं के लिए यह एक मात्र पेय, भक्ति का स्थान व शिव निवास को प्राप्त कराने वाला हो ।
इस प्रकार शील व्रत में नर्मदासुन्दरी की कथा पूर्ण हुई। अब तप पर नंदिषेण की कथा को कहते हैं -
॥ नंदिषेण की कथा ।।
समृद्धि के निवास की तरह मगध नामक देश था। उस देश में सभी ग्रामों का शिरोमणि नन्दिग्राम नामक ग्राम था। उस ग्राम में महा - दारिद्रय से संपन्न एक ब्राह्मण रहता था। सभी तरह से उसके अनुकूल वसुमित्रा नामकी पत्नी थी। उनका पुत्र नन्दीषेण देखने में कुतीर्थियों की तरह कुरूप था । तवे के समान उसका काला रंग था । बिड़ाल के समान भूरी-भूरी उसकी आँखें थी । गणेश की तरह उसका पेट मोटा था। हाथी की तरह उसके दाँत बाहर निकले हुए थे। ऊँट के समान लम्बे होठ थे । बन्दर के समान अथवा सूप के समान उसके कान थे। नाक चिपटा था। कुष्ठ रोग से आक्रान्त की तरह वह लगता था । उसका तिकोना मस्तक उसकी कुरूपता को और बढ़ाता था। बाल्यावस्था में ही उसके माता-पिता मृत्यु को प्राप्त हो गये। किसी भी प्रकार भिक्षाचर के समान दीन वृत्ति से वह जीता था। कितना ही समय व्यतीत हो जाने के बाद उसके मामा ने उसे अपने पास बुलाया और कहा - वत्स ! अपने घर की तरह ही विश्वासपूर्वक यहाँ रहो। मुझे सात पुत्रियाँ हैं । वर योग्य अवस्था प्राप्त होने पर मैं तुम्हें मेरी प्रथम पुत्री दूँगा। अतः तुम कुछ भी चिन्ता मत करो।
वह कारीगर की तरह होशियार होकर अनुकूल मन के साथ मामा के घर में सभी कार्य करने लगा। मामा की प्रथम पुत्री जब यौवन वय को प्राप्त हुई तो उसने सुना कि मुझे नन्दीषेण को प्रदान करेंगे। अतः उसने कहा -
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