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नर्मदासुंदरी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् दुर्गन्धमय कीचड बह रहा था। उसने राजपुरुषों से कहा - मुझे बहुत प्यास लगी है। अतः पालकी यहीं छोड़कर पहले मेरे लिए पानी लेकर आओ। वे जब तक पानी लेकर आते, तब तक तो वह पालकी से उतरकर शूकरी की तरह उस नाले में लोटने लगी। अहो! यह तो अमृत है - इस प्रकार कहकर उस दुर्गन्धयुक्त कीचड़ को पीने लगी। लोगों में आक्रोश पैदा करते हुए क्रुधी की तरह मानो घोड़े पर सवार होकर उड़ रही थी। कहने लगी - मैं इन्द्राणी हूँ। मैं विद्यादेवी हूँ। देखो! देखो! मुझे देखो! इस प्रकार अपने शील की रक्षा के लिए भूत प्रेत से आवेष्टित की तरह क्रियायें करने लगी।
राजपुरुषों ने जाकर राजा से वह सब कहा! राजा ने भी उसे पकड़ने तथा निग्रह करने के लिए मांत्रिकों को भेजा। उनके द्वारा क्रियायें आरम्भ किये जाने पर वह शीघ्र ही क्रोध से हुए लाल-लाल लोचनों के द्वारा अपने पर हावी भूत प्रेत की शक्तियों को प्रौद व भीषण रूप से दिखाने लगी। उन मांत्रिकों ने भी डरकर उसे उसी स्थिती में छोड़ दिया। बच्चों द्वारा पत्थर आदि से वह मारी तथा घायल की जाने लगी। इस प्रकार बाहरी आत्मा से ग्रसित के समान उसने अपने शील की रक्षा की। हृदय में एक मात्र आर्हत् धर्म को ध्याती थी।
____ एक बार वह लोगों से घिरी हुई मैले वस्त्र तथा मैले शरीर से एकसार होकर जिनवाण को गा-गाकर गोलगोल घूमते हुए नृत्य कर रही थी। उसको देखकर जिनदेव ने कहा - तुम तो अर्हत् उपासिका हो। तुम्हें कि है? उसने कहा - यहाँ सागार है। अतः अपना नाम नहीं बताऊँगी। दूसरे दिन बच्चों द्वारा पत्थर आदि से प्रताड़ित वह गाँव के बाहर उद्यान की ओर गयी। इतनी दूर व्यर्थ में ही कौन जाये - यह सोचकर बच्चे वापस मुड़ गये।
वन के बीच धर्मानष्ठान में तत्पर उसे जानने की इच्छा से जिनदेव भी आ गया। उसे देखकर वह मस्तक झुकाकर बोला - बहन! नमस्कार करता हूँ। तब नर्मदा ने भी उसे श्रावक जानकर अपनी सारी कथा कह सुनायी। जिनदेव ने भी उससे कहा - वीरदास मेरा मित्र है। भरुकच्छ से तुम्हारे लिए ही उसने मुझे भेजा है। अतः तुम दुःख मत करो। प्रातः काल राजपथ पर स्थित मेरे बेचने के लिए लाये गये हजारों घडे तम लकड़ी से फोड डालना। इस प्रकार संकेत करके दोनों ने नगर में प्रवेश किया। दूसरे दिन उसने राज-मार्ग पर रखे सभी घटों को फोड़ डालें। तब राजा ने जिनदेव को बुलाकर कहा- हा! उस पिशाच गुस्ता ने तुम्हारी कितनी बड़ी क्षति की है। अतः हमारे अनुरोध से तुम इसे समुद्र के उस पार ले जाकर छोड़ दो, जिससे यहाँ रहते हुए यह अनेक अनर्थ करने से बच जाय। उसने भी राजा के आदेश को स्वीकार करके, राजा का अत्यधिक सत्कार करके नर्मदा को दृढ बंधन में बांधकर अपने स्थान पर ले गया। वहाँ उसके बंधन खोलकर उसे नहलाकर अच्छे वस्त्र पहनाकर भोजन करवाया। फिर जहाज पर सवार होकर भृगुकच्छपुर आ गये। जिनदेव ने अपने घर आकर नर्मदापुर में समाचार भेज दिये। वे हर्षित होकर उसे लाने के लिए जाने की तैयारी करने लगे। जब तक वे रवाना होते, तब तक तो जिनदेव नर्मदा को लेकर वहीं आ गया। पिता आदि को देखकर वह उनके गले लगकर बहुत रोयी। ऋषभसेन आदि सभी स्वजनों द्वारा आनन्दाश्रुओं की मानो बरसात ही अवतरित हुई। पूछने पर जब नर्मदा ने अपना वृतान्त सुनाया तो सुनने वालों को भी इतना दुःख हुआ कि उन्होंने सोचा कि इस बिचारी नाजुक सी बाला ने यह दुःख कैसे सहा होगा?
उसके आ जाने की खुशी में मंदिर में अर्चना आदि उत्सव किये गये। संघ में महादान आदि द्वारा सभी पूजा की गयी। नर्मदा को लेकर आनेवाले जिनदेव को भी सभी के द्वारा अत्यन्त सम्मानित किया गया। फिर वह भी अपने वतन चला गया। नर्मदा सुन्दरी को प्राप्त करके सभी प्रेमशालियों के दिन स्वर्गलोक में देवों के समान सुखपूर्वक बीतने लगे।
एक बार नर्मदापुर में सर्वज्ञ के प्रतिनिधि के रूप में दस पूर्वधारी आर्य सुहस्ति नामक आचार्य पधारें। उन सूरि को आया हुआ जानकर ऋषभसेन आदि नर्मदासुन्दरी से युक्त होकर उन्हें वंदना करने के लिए गये। वन्दना
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