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नर्मदासुंदरी की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
छ दिन जहाज के रुकने के स्थान पर गयी । वहाँ शून्य देखकर उसने विचार किया कि स्वामी ने मुझे त्याग दिया है। पर मेरा क्या अपराध हुआ - यह मैं नहीं जानती । इस प्रकार विचार करते हुए उसे याद आया और उसने किमुनि के द्वारा कथित मेरा पूर्वबद्ध निकाचित कर्म अब उदय में आया है। अतः हे जीव ! उसके प्रभाव से यह छल रूप संकल्प है और कुछ नहीं। मुझे प्रिय ने त्यागा है, अत, स्वकृत दुष्कर कर्म को सहन कर । हे जीव! तँ न रो, न ही विलाप कर। सिर्फ सम्यग् भावना भा । क्योंकि
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धर्मकृत्यं विना नान्यद् येन कर्मघनमौषधम् ।
कर्म समूह की औषधि धर्म के बिना अन्य कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार विचारकर उसने सरोवर पर जाकर अपने वस्त्रों तथा अंगों को प्रक्षालित करके स्थापनाचार्य की स्थापना करके उस आर्हती ने अहंत को वन्दन किया । प्राण वृत्ति के लिए फल लेकर पर्वत की गुफा में प्रभु की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर नित्य भक्तिपूर्वक वन्दन करने लगी । पुष्पों द्वारा पूजा करती । पके हुए फलों का भोग लगाती। सुमधुर वाणी से झूमते हुए रोमाचिंत होकर प्रभु की स्तुति करती । फिर उसने विचार किया कि अगर मैं पुण्ययोग से इस सागर को पार कर गयी, तो व्रत ग्रहण करुँगी । ऐसा विचारकर समुद्र के तट पर उसने जहाज से पृथक् हुए यात्री की तरह आने-जानेवाले जहाजों को बताने के लिए एक पताका गाड़ दी।
इसी बीच उसके चाचा वीरदास किसी तरह बर्बरकूल देश को जाते हुए उस प्रदेश में आये । उस पताका रूपी चिह्न को देखकर पोत से उतरकर मार्ग पर पैदल आगे बढ़े। वहाँ नर्मदासुन्दरी जिनेश्वर की स्तुति कर रही थी। उस ध्वनि को सुनकर विचार किया कि नर्मदा की आवाज यहाँ कैसे ? जब वह खड़ी होकर पीछे मुड़ी तो चाचा की दृष्टि उस पर पड़ी। चाचा भी उसे जानकर क्षण भर के लिए साश्रु हो गये। फिर पूछा- बेटी! तुम इस जंगल में अकेली कैसे ? उसने भी अपना संपूर्ण वृतान्त यथातथ्य कह बताया। अहो ! भाग्य की बिडम्बना ! इस प्रकार कहकर उसे जहाज पर ले जाकर स्नान आदि करवाकर मोदक आदि भोजन करवाया। पवन की अनुकूलता से जहाज तीव्र वेग से चलने लगा। बर्बर कुल देश को प्राप्तकर सभी प्रसन्न हुए। उसके चाचा ने तम्बू बनवाकर उसमें नर्मदा को बिठाया। स्वयं पोत से माल उतारकर उपहार आदि लेकर राजा के पास गये। राजा ने भी उनका सम्मान करके इच्छापूर्वक व्यापार करने के लिए अपने भाण्डशाला में उसको रखा ।
उस नगर में रहनेवाली हरिणी नामकी वेश्या थी । राजा की कलाओं में वह नृत्यांगना गौरव के योग्य थी। वह सर्व वेश्याओं की स्वामिनी थी । देशान्तरों में भी वह ख्यात थी । निज सौन्दर्य के गर्व से वह अप्सराओं पर भी हंसती थी। सभी वेश्याओं से भाड़े का अंश लेकर तथा अपना अर्जित धन का अंश लेकर वह गणिका राजा को काम-शुल्क देती थी। बाहर से आये हुए जहाज के अधिपति उसे राजा की आज्ञा से एक हजार आठ दीनारें देते थे । एक बार उसने दासी द्वारा वीरदास को कहलवाया - हे देव! मृत्युलोक की सची हरिणी आपको चाहती है । वीरदास ने कहा - हे भद्रे ! अगर वह इन्द्राणी से भी ज्यादा गुणवती हो, तो भी मैं स्वदारा में परितोष रखने वाला कभी उसकी कामना नहीं करता । बिना किसी भावना के उसने १हजार आठ दीनारें उसके योग्य अर्पित की। वह दासी भी उन दीनारों को लेकर अपनी स्वामिनी के पास आ गयी। उसने कहा- इन दीनारों से मुझे क्या ? उस वणिकपुत्र को लेकर आ । उस दासी ने पुनः जाकर अपनी स्वामिनी का कथन दोहराया। उसने भी विचार किया कि आखिर वह वेश्या मेरा करेगी भी क्या ? महा प्रलय काल आने पर भी मैं अपना शील नहीं छोडूंगा। अतः वीर सुभट की तरह जाता हूँ । कायर होना योग्य नहीं। मेरे शील रूपी स्वर्ण की यह पत्थर पर कसौटी हो जाय। ऐसा विचारकर वह वेश्या के भवन में आया। उस अभिमानिनी ने भी भिन्न-भिन्न हावभाव द्वारा उसे क्षुभित करने की कोशिश की, पर वह मेरु की तरह अचल रहा । चुगलखोर की तरह उसकी दासी ने उसके कान में कहा - हे देवी! इसकी प्रिया
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