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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नर्मदासुंदरी की कथा कर देखते हैं। वह भी हर्षित होती हुई उतरकर पति के साथ घूमने लगी। एक वन से दूसरे वन में भ्रमण करते हुए उन्होंने एक सरोवर देखा, जिसके किनारों पर रहे हुए विशाल छायादार वृक्षों की कतारों की छाया बादलों का भ्रम पैदा करती थी । कमलों से आच्छादित सुस्वादु स्वच्छ जल उस सरोवर में था । उन दोनों ने उस सरोवर में जलक्रीड़ा की फिर वहाँ से निकलकर उसके तट पर एक लतागृह देखा । उसमें कोमल पत्तों की शय्या बनाकर कुछ ही क्षणों में पति - पत्नी सो गये। तब नर्मदा के निद्राधीन हो जाने पर उसके पति ने वैरी की तरह निर्लज्जों का शिरोमणि बनकर विचार किया - इसको यहाँ एकाकिनी छोड़ दूँ, जिससे यह स्वयं ही मर जायगी । फिर चिन्तन के अनुरूप कार्य करके वह धीरे से वहाँ से निकल गया। जहाज के पास आकर वह कपटी जोर-जोर से रोने लगा । सार्थिकों ने आकुल होकर पूछा- है सार्थप! क्यों रोते हो? उसने कहा- मेरी पत्नी को राक्षसों ने खा लिया है। उसकी रक्षा में असमर्थ मैं कायरों की तरह भागकर यहाँ आ गया। जल्दी से जहाज को रवाना कर दो। वह राक्षस कहीं यहाँ न आ जाय ! भयभीत होते हुए सभी ने जहाज रवाना कर दिया। उसने भी छलपूर्वक दुःखी की तरह आहार भी नहीं किया। विलाप करते हुए ऊँच स्वर में रोने लगा। कभी भूमि पर लौटता, कभी मूर्च्छित हो जाता । हृदय में तो खुश होता हुआ वह विचार करने लगा कि इस प्रकार करते हुए लोगों में मेरा अपवाद भी नहीं होगा । सार्थिकों द्वारा उसे महा कष्ट पूर्वक समझा बुझाकर भोजन करवाया गया। यवनद्वीप जाकर सभी ने वांछा से अधिक लाभ प्राप्त किया। अतः सभी प्रसन्न हुए। माल के बदले दूसरा माल लेकर वे सभी अपने नगर में आये ।
नर्मदा के पति ने रोते हुए अपने मात-पिता से बताया- आपकी बहू का राक्षस द्वीप में एक राक्षस ने भक्षण कर लिया । दुःखार्त्त होकर उन्होंने भी जैसा उसने दुःख प्रकट किया था, उसी तरह माता पिता भी विलाप करने लगे। और मृतक कार्य पूर्ण किया क्योंकि
स्थितिर्ह्यसौ ।
संसार की स्थिति ही ऐसी है।
कुछ समय बीत जाने के बाद उसका एक स्वरूपवती कन्या के साथ फिर से विवाह कर दिया। उसके साथ प्रेमासक्त होकर वह भोगों को भोगने लगा ।
इधर नर्मदा कुछ क्षणों बाद सोकर उठी, तब उसने पति को न देखकर मन में विचार किया कि निश्चित ही मुझसे परिहास करने के लिए मेरे प्रिय कहीं छिप गये हैं। बार-बार उसने आवाज लगायी - हे कान्त ! मुझे दर्शन देवें । अब मजाक न करें, मेरा मन घबराता है। फिर भी पति के न आने पर वह शंकित मन से शीघ्र ही उठ खड़ी हुई। सरोवर, वन आदि सभी जगह खोजा । पुनः उनके नहीं देखने पर वह कहने लगी- हा ! नाथ! मुझे अनाथ छोड़कर आप कहाँ चले गये? प्रतिध्वनि होने पर वह मुग्ध की भाँति दौड़ने लगी। पाँव में काँटें चुभ जाने से पाँवों से झर हुए खून से पृथ्वीतल लाल हो गया । निकुंजों आदि में घूम-घूमकर पुनः लता निकुंज में आयी। इसी बीच उसकी इस प्रकार की दशा देखकर प्रतीकार करने में असमर्थ सूर्य लज्जित होकर अस्ताचल में चला गया। तब वह खेद से घिरी हुई उसी लतागृह में रोते-रोते तथा डरते-डरते दीन होकर पर्णशय्या पर सो गयी। उसके दुःख से दुःखित वह रात और ज्यादा अंधकार से आच्छादित हो गयी। अथवा मलीन मन वाली रात सज्जनों की आपत्ति - विपत्ति में ज्यादा उल्लसित हो रही हो ऐसा लग रहा था । चिन्ता भार से आक्रान्त मन वाले होने से उसके रात्रि के चार प्रहर भी करोड़ों प्रहरों की तरह हो गये । सवेरे उठकर पुनः वह इधर-उधर घूमने लगी। मृग आदि को पूछने लगी कि क्या तुमने मेरे पति को देखा है ? हे चतुरता के महासागर! हे कृपारत्न रूपी पर्वत! हे नाथ! मुझे क्यों छोड़ दिया? इस प्रकार उच्च स्वर में विलाप करने लगी । इस प्रकार पाँच दिनों तक सर्वत्र घूम-घूमकर पति को न देखकर वह महासती थककर निराश हो गयी।
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