________________
सम्यक्त्व प्रकरणम्
नर्मदासुंदरी की कथा सहदेव तथा उसकी प्रिया ने वहाँ अपना मनोरथ सुखपूर्वक पूर्ण किया। फिर उसने आकाश में चमकती दिव्य विद्युत् माला की तरह एक कन्या को जन्म दिया। सहदेव ने पुत्र जन्म की तरह कन्या का जन्मोत्सव किया। अत्यधिक आनन्द प्राप्त होने से उसका नाम नर्मदासुन्दरी रखा। वह क्रम से वर्द्धमान होती हुई कलाब्धि में पारंगत बन गयी। विशेष रूप से वह स्वरमण्डल की विज्ञात्री बनी। यौवन को प्राप्त होकर वह बाला विलासों के समूह रूप मन्दिर में रूप-लावण्य सौभाग्य द्वारा अप्रतिम रूप से ख्यात हुई। उसके अद्भुत रूप का श्रवणकर ऋषिदत्ता ने विचार किया कि वह मेरे पुत्र की भार्या कैसे बनेगी? अहो! मेरे अपनों द्वारा मैं अभागिनी त्यागी हुई हूँ। मैंने अर्हत् धर्म रूपी रत्न का त्याग कर दिया है। उतना ही नही, मेरे साथ जिन्होंने बातचीत भी बन्द कर दी है, वे मेरे पुत्र को वैसी कन्या कैसे देंगे? इस प्रकार वह बार-बार दुःखित होकर रोने लगी। उसे देखकर उसके पति ने कहा - मेरे साथ रहते हुए भी तुम्हें क्या दुःख है? प्रिये! बताओ! जिससे मैं तुम्हारा दुःख दूर कर सकूँ। तब उसने पूरी बात बतायी। उसका सारा वृत्त सुनकर उसके पुत्र ने कहा - तात! मुझे माता के पितृगृह में अभी का अभी भेज दीजिए। मैं विनय आदि के द्वारा उन सभी स्वजनों की आराधना करके उस कन्या से विवाह करके माता को सन्तोष प्रदान करूँगा। तब खूब सारा माल देकर एक महासार्थ बनाकर पिता के द्वारा भेजा गया वह मामा के घर आया। अपनी नानी आदि स्वजनों को देखकर वह परितोष को प्राप्त हुआ। घर में आये हुए आगत का स्वागत करना चाहिए - ऐसा विचारकर उन्होंने भी उसका सम्मान किया। उसने अपने विनय आदि से सभी को खुश करके अपने वश में कर लिया। फिर उसने उनको अत्यन्त प्रार्थना की, पर उन्होंने कन्या नहीं दी।
उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिता ने तुम्हारी माँ को हमें ठगकर कपटपूर्वक हमसे ग्रहण कर ली। हम ऐसे व्यवहार को देखते हुए तुम्हें अपनी पुत्री कैसे देवें?
कुछ समय बाद कन्या के द्वारा प्रतिबोधित किये जाने पर उसमें धर्म विचार उत्पन्न हुआ। सद्धर्म से भावित आत्मा वाला वह परम श्रावक बन गया। तब उनके द्वारा पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया गया। वह प्रीतिपूर्वक उसके साथ धर्म व काम दोनों साधने लगा।
फिर एक बार वह स्वजनों से पूछकर नर्मदापुर से अपने नगर में आया। माता पिता ने उत्साहपूर्वक उसे अपने घर में प्रवेश कराया। सास-ससुर वर्ग को अपनी उचित प्रतिपत्ति से तथा अपने गुणों रूपी वशीकरण मन्त्र से नर्मदा ने वश में कर लिया। धार्मिक सहचारिणी से अपने आप को धन्य मानते हुए महेश्वरदत्त भी पुनः दृढ़ धर्म से युक्त हो गया। ऋषिदत्ता ने भी पुनः अपने आर्हत्-धर्म को स्वीकार कर लिया। रुद्रदत्त भी धार्मिकों में अग्रिम सत्य श्रावक बन गया।
एक बार नर्मदा विपुल विलास युक्त झुककर दर्पण में मुख देखती हुई खड़ी हुई और गवाक्ष से बिना देखे प्रमादवश उसने पान का रस थुक दिया। वह रस नीचे से जाते हुए एक साधु पर गिरा। कुपित होते हुए साधु ने शाप दिया - जिसने मुझ पर ताम्बूल रस थूका है, वह पापात्मा अपने प्रिय के वियोग का पात्र बनें। साधु के वचन सुनकर उसे संपूर्ण शरीर में भाले के प्रहार जैसा लगा। अति वृद्धा की तरह काँपती हुई नर्मदा सुन्दरी गवाक्ष से शीघ्र ही उतरकर स्वयं की अनेक प्रकार से निंदा करती हुई मुनि को वस्त्र से पोंछकर उनके पाद पक्षों में गिर गयी। अति दीनता से विनयपूर्वक क्षमा माँगकर उसने कहा - हे जगदानन्द! मेरे संसार-सुख का इस प्रकार छेदन न करें। हाय! धिक्कार है मुझ अनार्या को। जो इस प्रकार की क्रिया कर डाली। दुस्सह, रौद्र दुःख सागर में प्रमाद से अपने आप को डुबो दिया। मेरे सारे सुख अभी से ही नष्ट हो गये हैं। प्रभो! मैं पापीष्ठ से भी पापिनी बन गयी हूँ। हे स्वामी! दुःखियों पर तो महर्षि दयावान् होते हैं। अतः हे करुणा सागर! मेरे शाप को दूर कीजिए।
उसे अत्यन्त विलाप करते हुए देखकर अपने विशिष्ट श्रुतज्ञान से जानकर मुनि ने कहा - भद्रे! दुःखी मत
160