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सम्यक्त्व प्रकरणम्
चंदनबाला की कथा द्वार के अभिमुख देखने लगी।
इधर काफी समय पहले से ही कौशाम्बी में छद्मस्थ चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर ने पौष वदी एकम के दिन अभिग्रहों को धारण किया था। वे अभिग्रह इस प्रकार थे -
१. सूपड़े में रखे हुए हों। (द्रव्य से) २. उड़द के बाकुले हों। (द्रव्य से) ३. देनेवाली स्त्री हो। (क्षेत्र से)
४. एक पाँव देहली के अन्दर हो । (क्षेत्र से) ५. एक पाँव देहली के बाहर हो। (क्षेत्र से) ६. भिक्षा का काल निवृत्त हो गया हो। (काल से) ७. रोती हो
८. राजकन्या हो ९. दासीपने में हो
१०. लोह की शृंखला से बंधे हुए पैर हो ११. मस्तक मुंडित हो
१२. अट्ठम तप हो १३. वह दान देगी तो पारणा करना अगर ये १३ ही अभिग्रह चिरकाल बाद भी पूर्ण होंगे, तभी आहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं।
अभिग्रह से अनजान लोगों के घर भिक्षाचर्या के समयोपरान्त प्रभु उच्च नीच घरों में प्रतिदिन घूमने लगे। लोगों द्वारा बहराये जाने पर भी अभिग्रह के कारण प्रभु आहार ग्रहण नहीं करते थे। अतः लोग खेदित होते हुए बारबार स्वयं की निन्दा करने लगते। इस प्रकार भिक्षा को न ग्रहण करते हुए यम की पीड़ा के समान परीषहों को सहन करते हुए स्वामी ने चार माह बिता दिये थे। एक बार वे भिक्षा के लिए सुगुप्त अमात्य के घर पधारें। अमात्य पत्नी नन्दा ने जंगम कल्पवृक्ष के समान स्वामी को देखा। भाग्य से ही आज मेरे घर वीर स्वामी स्वयं पधारे हैं। इस प्रकार आनन्द से बोलते हुए नन्दा अभ्युत्थान पूर्वक स्वयं अद्भुत कल्पनीय आहार लेकर आयी। पर अभिग्रह से नियन्त्रित स्वामी बिना कुछ लिये ही लौट गये। नन्दा भी अत्यधिक दुःखित हुई - हा! मैं निर्भागी हूँ जो देखते-देखते नष्ट निधि की तरह प्रभ का आगमन भी मेरे लिए निष्फल हआ। उसे विषादग्रस्त बैठी हई देखकर दासी ने पूछा - देवी! ये देवार्य प्रतिदिन आते हैं और भिक्षा लिये बिना लौट जाते हैं। तब नन्दा ने कहा - निश्चय ही स्वामी के कोई अभिग्रह है। फिर उसने अपने पति अमात्य को सारा वृतान्त बताते हुए कहा - हे कान्त! आपकी इस विशाल बुद्धि का क्या फल है? अगर आप भिक्षा के विघ्न के कारण रूप अभिग्रह को नहीं जान पाते। महामात्य ने भी कहा - देवी! खेद मत करो। स्वामी के अभिग्रह को जानने के लिए उपाय खोजुंगा। वहाँ पर आयी हुई मृगावती की दासी विजया ने उनके वार्तालाप को सुनकर अपनी स्वामिनी को निवेदन किया। मृगावती भी शीघ्र ही विषाद रूपी विष से ग्रस्त होते हुए विह्वल हो गयी। डरते हुए राजा ने भी उसके विषाद का कारण पूछा। रानी ने कहा - राजा लोग अपने चरों द्वारा संपूर्ण विश्व के चर-अचर के बारे में जानते हैं, पर आप तो अपने ही पुर के बारे में नहीं जानते। हमारी नगरी में त्रैलोक्य पूजित भगवान् वीर स्वामी पधारें हैं। उनको भिक्षा ग्रहण किये हुए कितना काल हो गया है? क्या इसे आप जानते हैं? राजा ने पूछा - देवी! क्या हमारी नगरी में धनी लोग नहीं हैं? या फिर दुर्भिक्ष काल है, जिससे कि भगवान् को भी भिक्षा का लाभ नहीं होता है! देवी ने कहा - भिक्षा तो प्राप्त होती है, पर उसे भगवान् ग्रहण नहीं करते। घर-घर में प्रवेश करके वे नित्य ही बिना भिक्षा लिये ही लौट जाते हैं, यह आपको ज्ञात हो। आपकी इस विभूति से क्या अमात्य आदि को भी ज्ञान नहीं है कि अभिग्रह अपूर्ण रहने पर ही स्वामी भोजन नहीं करते, पर हम जैसे स्वयं भोजन करते हैं। राजा ने कहा - देवी! आपने अतिसुन्दर कहा - प्रमाद निद्रा में सोया हुआ मैं अब जागृत हो गया हूँ। प्रातः कल किसी भी उपाय के द्वारा प्रभु के अभिग्रह को जान लूँगा। इस प्रकार कहकर अमात्य को बुलाकर सारा वृत कहा। अमात्य ने भी यह सुनकर स्वामी का अभिग्रह जानने के लिए तथ्य का 1. वह कमरा मार्ग के सन्मुख था।
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