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सम्यक्त्व प्रकरणम्
चंदनबाला की कथा
दुःख देते हुए तुम्हें शरम नहीं आती? इतने काल तक तो अनेक भवों को धारण किया। मनुष्य लोक में भी नारकीय दुःखों को देखा। फिर मैं गर्भ में ही क्यों नहीं गल गयी या विलीन हो गयी? अथवा पैदा होते ही जन्म की अनंतगुणी वेदना से क्यों नहीं मर गयी ? अथवा झूला झूलते हुए डोरी कटने से मैं क्यों नहीं मरी? आकाश से गिरते हु को धरती धारण करती है, पर तुम्हारे द्वारा अत्यधिक दुःख दिये जाने पर धरती पर गिरते हुए मुझे धारण करने वाली धारिणी माता भी तुमने छीन ली। तो अब मेरे जीने के लिए बचा ही क्या हैं? इस प्रकार उच्च स्वर में विलाप करती हुई नयनों की अश्रुधारा से मानो माता को पग-पग पर जलांजलि दे रही हो । पग पटक-पटककर चलने से दोनों पाँवों में खून की धाराएँ बहने से संपूर्ण पृथ्वी रक्त से आर्द्र बन गयी। मानो वसुमती के दुःख से धरती की छाती भी फिर गयी हो ।
तब वह रथिक उसे सान्त्वना देते हुए समझा बुझाकर अपने लोभ से उसे कौशाम्बी नगरी ले आया। वहाँ पर ऊँचे दाम पर बेचने के लिए उस बेशरम ने वसुमति को चतुष्पथ पर ले जाकर खड़ा कर दिया। उसके भाग्य से उसे सर्वप्रथम धनावह नामक श्रेष्ठि ने देखा। देखते ही विचार किया कि इस प्रकार का रूप तो सुकुल में ही सम्भव है। चंपा नगरी का नाश होने पर अपनों से वियुक्त इस बाला को इस दुरात्मा ने प्राप्त कर लिया है। अपने यूथ से भ्रष्ट शिकारी से डरती हुई हरिणी की तरह यह बालिका मांस के पिण्ड की तरह धरकर यहाँ बेचने के लिए रखी गयी है। यह बिचारी किसी नीच के हाथ न चली जाय, अतः बहुत सारा द्रव्य देकर भी इसे मैं ही खरीदूँगा। खामोश होकर देखती हुई उस बाला को अपनी पुत्री की तरह स्नेह से देखते हुए श्रेष्ठि ने विचार किया कि मेरे घर में रहते हुए कदाचित् इसके अपने इसे मिल जाये । इस प्रकार विचार करके उस रथिक को इच्छित मूल्य देकर पुत्री लाभ से अत्यन्त प्रसन्न होते हुए वसुमती को अपने घर ले गया । श्रेष्ठि ने उससे पूछा- बेटी! बोलो ! तुम्हारे पिता कौन है ? तुम्हारे स्वजन कहाँ है? मुझसे मत डरो। मैं तुम्हारे पिता के समान हूँ। अयोग्य अवस्था के कारण वह अपना कुल आदि बताने में असमर्थ रही। मुख नीचा करके मौन पूर्वक ही उसने उत्तर दिया। सेठ ने अपनी मूला सेठानी से कहा- प्रिये ! यह मेरी पुत्री है। उत्पन्न होते हुए फूल की तरह म्लान हो रही है। अतः इसकी यत्नपूर्वक रक्षा करना। इस प्रकार सेठ के कथन द्वारा वह अपने घर की तरह वहाँ रहने लगी। अमृत रस से भरी हुई आत्मा के समान वह लोगों के नेत्रों को आनन्द देने लगी । शील, मधुर वाणी, विनय आदि के द्वारा चन्दन की तरह सभी को शीतलता प्रदान करने के कारण श्रेष्ठि ने उसका नाम चन्दनबाला रख दिया। देखते ही देखते वह विकारों के रंगस्थान रूप यौवन को प्राप्त हुई। लेकिन उसका यौवन बचपन की तरह निर्विकारी था। अतिशय रूप से युक्त उसके यौवन को देखकर मूला ने मत्सर भाव युक्त होकर विचार किया - पुत्री वत् मानते हुए भी अगर इसके रूप से मोहित होकर श्रेष्ठि इसके साथ विवाह कर लेंगे तो मैं तो जीवित रहते हुए भी मृत के समान हो जाऊँगी। स्वभाव सुलभ तुच्छता तथा ईर्ष्या से मूला अग्नि से जले हुए की तरह दिन रात अंदर ही अंदर जलने लगी।
एकदिन गरमी के ताप आक्रान्त होकर श्रेष्ठि बाजार से घर आये । भाग्यवशात् उस समय उनके पाँवों को धोने के लिए घर पर कोई भी नहीं था । विनीता होने से चन्दना श्रेष्ठि के मना करने पर भी उनके पाँवों को धोने लगी। ऐसा कार्य कभी नहीं किया हुआ होने से श्रम से निःसहाय होते हुए उसके काले-काले लम्बे बाल निर्बन्ध होकर उसके सिरसे चेहरे पर आकर नीचे लटकने लगे। सेठ ने सोचा इसके निर्मल बाल पृथ्वी पर खराब न हो जाये, अतः सरलता पूर्वक कोमलता से उसके बालों को इकट्ठा करके स्नेह से बाँध दिया। यह देखकर मूला के दिल में शूल चुभ गयी। उसने विचार किया कि मैंने जो सोचा था, वही हो रहा है। श्रेष्ठि ने चन्दना के बालों को संयमित किया है। पर यह सब पिता के लक्षण नहीं है। मुझे चन्दना के प्रति उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। कौन जानता है नख से छेदन करनेवाला कभी कुठार से छेदन करने की ओर ले जाय! अभी तो यह कोमल व्याधि है, अतः अभी
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