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नल दमयन्ती की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
आगे जाते हुए सती ने जलती हुई बालुका से युक्त, अंगारों के समान पत्थरों से युक्त अग्निगंगा की तरह एक नदी को देखा। मरुभूमि के सखी के समान उसे निर्जला देखकर अति वेदना से आक्रान्त एवं ताप से क्लान्त होकर सती ने कहा- अगर मैं पवित्र अर्हत् धर्म की आराधिका हूँ एवं सत्यवादिनी हूँ तो यहाँ अमृतधारा का अनुकरण करनेवाली वारिधारा बहे। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके उसने जैसे ही भूमि पर पग से प्रहार किया, वैसे ही कुएँ से निकलने वाले जल की तरह वहाँ से जल की धारा उछलने लगी। उस जगह पर अद्भुत अमृत कुण्ड के समान जलकुण्ड हो गया। देवलोक के अमृत की तरह उसका नीर अतृप्तिवाले को तृप्ति प्रदान करने लगा।
पुनः वह भीमसुता, वनलक्ष्मी के समान अंगोंवाली आगे बढ़ते हुए थककर एक न्यग्रोध वृक्ष के मूल में बैठ गयी। तब वहाँ किसी सार्थ-नरों ने भ्रमित होकर उसको देखा और कहा- हे भद्रे ! रम्भा के समान रूप वाली तुम कौन हो ? उसने कहा- अपने सार्थ से च्युत होकर मैं मानवी इस कानन में भ्रमण कर रही हूँ। हे पथिकों! मुझे तापसपुर का मार्ग दिखाओ। उन्होंने कहा प्रातःकाल उठकर तुम सूर्य के साथ-साथ चलती हुई पश्चिम दिशा की ओर चली जाना। तुम्हें तुम्हारा मार्ग मिल जायगा ।
हम तो पानी लेकर अभी ही चले जायेंगे। अगर तुम्हारी सार्थ में आने की इच्छा हो तो हमारे पीछे पीछे चली आओ। तब उन सार्थ नरों के साथ उसको आया हुआ देखकर सार्थपति ने पूछा- क्या तुम वनदेवी हो? उसने कहानहीं। तब सार्थपति ने कहा- हे भद्रे ! तो फिर वन में क्या कर रही हो? भैमी ने कहा- मैं वणिक् पुत्री हूँ । पिता के घर
ओर प्रस्थान करते हुए रात्रि में निद्रा में पति के द्वारा कानन में छोड़ दी गयी हूँ । आपके आदमियों को भाई के समान समझकर उनके साथ यहाँ आयी हूँ। सार्थपति ने कहा- पुत्री ! मत डरो। अब आश्वस्त हो जाओ। मैं विमल मन से करण्ड में रहे हुए पुष्पों की तरह तुम्हें बड़े यत्न से सुखपूर्वक अचलपुर ले जाऊँगा । अतः स्नेहपूर्वक उसको पुत्री की तरह रथ पर बिठाकर मध्याह्न वेला में कुंज में निर्झरिणी की तरह उस सार्थ ने प्रस्थान किया ।
उस सार्थ में सुखपूर्वक रहकर रात्रि में विधिवत् सोयी । किसीके द्वारा परमेष्ठि महामन्त्र को पढ़ते हुए उसने सुना। उसने सार्थेश के पास जाकर पूछा कि इस प्रकार नमस्कार मन्त्र बोलनेवाला मेरा साधर्मी है। अतः उस धार्मिक को मुझे बताओ। श्रद्धालु धनदेव भी उसके वचन का बहुमान करता हुआ, गुरु वाक्य के समान उसके वचन को अलंघ्य मानते हुए उसके साथ उस धार्मिक के वहाँ आया। उन दोनों ने देखा कि पाट पर स्थित जिन बिम्ब की प्रमोदपूर्वक चैत्यवंदना के द्वारा वह सार्थवाह वन्दना कर रहा है। उसके पुण्य में अंतराय न पड़े इस प्रकार आशीष देते हुए सती तथा सार्थपति दोनों ने अनुमोदना के द्वारा अद्भुत पुण्य उपार्जन किया।
इन्द्रनील के समान नीलपट पर स्थित अर्हत् बिम्ब को देखकर भक्तिपूर्वक पूजा की तथा वन्दना की । देवेन्द्र को वन्दन करके उचित क्रियाओं को करने के बाद भैमी ने उससे पूछा- हे सदासत्त्व! आपके द्वारा कौन से तीर्थेश की अर्चना की जाती है?
उसने कहा-ये भावी तीर्थंकर हैं, उन्नीसवें होनेवाले श्री मल्लिनाथ स्वामी हैं। हे कल्याणी! इनकी पूजा में मेरी जो विशेषता है उसे सुनो।
कांची नामकी नगरी का मैं ख्यात वणिक हूँ। वहाँ पर एक बार धर्मगुप्त नाम ज्ञानी महामुनि आये । रतिवल्लभ नाम के उद्यान में उनका पधारना हुआ । मैंने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा, वन्दना आदि की। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि मुझे सिद्धि कब मिलेगी ? तब उन्होंने अपने ज्ञान के उपयोग से बताया कि देवलोक से च्युत होकर तुम मिथिला नगरी के प्रसन्नचन्द्र राजा बनोगे । फिर उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ प्रभु की वाणी से प्रबुद्ध होकर व्रत प्राप्तकर केवली होकर सिद्धि को प्राप्त करोगे । बस ! तभी से मैं मल्लिनाथ प्रभु का परम भक्त हूँ। पाट पर रही हुई उनकी प्रतिमा की मैं नित्य आराधना करता हूँ।
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