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शिवकुमार की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् यह सुनकर शिवकुमार ने बार-बार अन्तर में विचार किया, जिससे उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ और मुनि द्वारा कथित सारी बातें साक्षात् देखी। तब शिव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर साधु महाराज को वन्दना करते हुए कहा-आपका कहा हुआ व्रत पालकर मैं स्वर्ग में गया। अतः हे भ्राता! अभी भी मुझे व्रत प्रदानकर अनुगृहित करें। व्रत ग्रहण किये बिना धर्म का संपूर्ण रीति से पालन नहीं किया जा सकता। क्योंकि
अतियत्न्यपि किं कुर्यात् षट्कायारम्भवान्गृही । धर्म में अतिप्रयत्नी गृहस्थ छ काय का आरंभी होने से धर्म क्या करेगा? अतः माता-पिता से पूछकर शीघ्र ही व्रत ग्रहण करुंगा। मुनि ने कहा-हे भद्र! प्रमाद मत करो।
तब शिव वहाँ से उठकर अपने माता-पिता के पास आकर उनसे कहा-आज मैंने सागर-ऋषि की धर्मदेशना सुनी। उनके द्वारा अस्थिर-योग वाले भव की असारता को जानकर मैं सतत भ्रमण के श्रम से इस भव से निर्विग्न हो गया हूँ। अतः अब मुझे व्रत के लिए अपनी अनुमति प्रदान करें, जिससे भवसागर का पार पा सकूँ। तब उन दोनों ने कहा-हे वत्स! ऐसा मत बोलो! तुम्हें हम व्रत की अनुमति प्रदान नहीं कर सकते, क्योंकि हम तुम्हारा वियोग सहन करने में समर्थ नहीं है। अतः जब तक हम जीवित हैं तब तक घर पर ही रहकर धर्म करो, उसके बाद चिरकाल तक राज्य करके फिर व्रत ग्रहण करना। तब उनके आग्रह को मानकर प्रतिमा की तरह मौन रूप से संपूर्ण सावध कर्म से विरत होकर शिव यति की ही तरह रहने लगा। पिता द्वारा कहे जाने पर भी उसने कुछ भी भोजन ग्रहण नहीं किया। मत्त हाथी की तरह केवल सिर हिलाता रहा।
तब राजा ने शिवकुमार के मित्र परमार्हती सेठ के पुत्र दृढ़धर्मी को बुलाया और उससे कहा-हे वत्स! शिव को व्रत ग्रहण करने की अनुमति न देने के कारण वह मौन पूर्वक, भोजन का त्यागकर अभिमानपूर्वक बैठ गया है। तब वह दृढ़धर्मी श्रावक राजा की आज्ञा स्वीकार करके शिवकुमार के पास गया। नैषिधिकी का तीन बार उच्चारण करके उसके कक्ष में प्रवेश किया। फिर इर्यापथिक का प्रतिक्रमण करके बारह आवर्त द्वारा वन्दन करके भूमि को प्रमार्जित करके "आपकी आज्ञा है" इस प्रकार बोला। तब शिवकुमार ने उससे कहा-हे मित्र! साध्वोचित विनय का कृत्य तुमने मेरे साथ क्यों किया? दृढ़धर्मी ने कहा-हे भद्र! तुम भी भाव-साधु हो। समता-धारी होने से आपके प्रति मेरा विनय क्यों उपयुक्त नहीं है? किन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि भव से निस्पृह आपने आहार का परित्याग क्यों किया है? तब कुमार ने कहा-हे मित्र! व्रत ग्रहण करने के लिए मैंने आहार का परित्याग किया है। जब तक मातापिता अनुमति नहीं देंगे, तब तक आहार ग्रहण नहीं करूंगा। मेरे अनादर से उनका स्नेह शिथिल पड़ जायगा, वे दोनों मुझसे उद्विग्न होकर मुझे व्रत की अनुमति प्रदान कर देंगे।
उस श्रावक ने कहा-हे कुमार! यद्यपि तुम व्रत स्वीकार करने के इच्छुक हो, पर आहार का त्याग मत करो। आहार देह का मूल है और धर्म देह पर आश्रित है। धर्म द्वारा ही निवृति प्राप्त होगी। मुनि भी अनवद्य आहार तो ग्रहण करते ही हैं। तब शिव ने उसके कथन को उचित मानते हुए वैराग्यवृत्ति पूर्वक बोला-मैं भी तुम्हारे कहने से आहार ग्रहण करूँगा। लेकिन सुनो! आज से आगे मैं गृहवास में रहते हुए भी साधु की तरह रहूँगा। सचित्त तथा सचित्त संबद्ध वस्तुओं से दूर रहूँगा। घृत आदि विकृतियाँ, संपूर्णजाति के फल, सभी दुःपक्व, अपक्व आहार, सभी व्यञ्जन, रंगीन-वस्त्र-परिधान, वाहन, स्नान, विलेपन, पान, पुष्प श्रृंगार, पलंग, स्त्रियों के संगम आदि का परित्याग करूँगा। कर्मों की निर्जरा के लिए उन सभी का अभीष्ट पदार्थों की तरह त्याग करूँगा। एक अन्न व दूसरा जल-इस प्रकार दो ही द्रव्यों का उपभोग आयम्बिल के द्वारा बेले-बेले के पारणे से करूँगा।
उस श्रावक ने यह सारी व्यवस्था राजा को बता दी। राजा भी प्रसन्न हुआ कि आखिर भोजन करने के लिए तो कुमार तैयार हुआ। तब जिस प्रकार शिष्य आचार्य की सेवा करता है उसी प्रकार वह दृढधर्मी भी शिव को सदा
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