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मूलदेव की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
उधर पिता द्वारा जुए के दोष से निर्वासित नृप का पुत्र मूलदेव पृथ्वी पर घूमता हुआ वहाँ आया । गुलिका के प्रयोग से भाट की तरह अन्य रूप वाले कुब्जवामन का रूप धारण कर लिया । विविध विनोदों द्वारा नगरी के नों को विस्मित करते हुए उस धूर्त्तराज ने ख्याति को प्राप्त किया ।
वह देवदत्ता अपने गुणों के उत्कर्ष से गर्वित होती हुई पुरुषों में द्वेष रखती थी। वह मानती थी कि पुरुष निर्गुण होते है। उसके बारे में सुनकर सद्गुण के स्थान रूपी मूलदेव ने विचार किया कि अहो ! स्त्री होते हुए भी इतना गर्व? यह तो कौतुक ही है। उसके अहंकार को न सह सकने के कारण मूलदेव ने देवदत्ता के घर के पास गन्धर्व गीत गाना शुरु कर दिया। उसके सुस्वर की अतिशयता से वहाँ मार्ग पर चलते-फिरते लोग राजाज्ञा को धारण किये हुए की तरह स्थिर हो गये । उसके गीत से हत चित्त वाले सभी जन मन्त्र से स्तम्भित की तरह बिना स्पन्दन किये अपने-अपने कार्यों को भूलकर स्तब्ध हो गये । वातायन में स्थित देवदत्ता ने भी उसके गीत को सुना। सुनकर विचार किया कि क्या यह देवलोक से गान्धर्व अवतीर्ण हुआ है। अहो ! इसकी वाणी में सुन्दरता ही नहीं, अपितु स्वर की परिपक्वता भी है। अहो ! सप्तस्वरों के अलग-अलग रूप रागमय है। अहो ! इसके स्वरों का आरोह-अवरोह कितना सुन्दर है ! इस प्रकार उसमें आसक्त होती हुई उसे अपने घर पर बुलाने के लिए पहले हंसिका को भेजा, बाद में चंद्रिका को भी भेजा। वे दोनो दासियाँ क्रमशः मूलदेव के पास आयीं। अवसर देखकर उसे पाने के लिए उसके सामने खड़ी हो गयीं। तब उत्सुकता के कारण देवदत्त ने पुनः क्रोधित होकर कहा- हे सखी!
संगम! लगता है तुम्हें वहाँ बैठने के लिए आसन दे दिया गया है। शीघ्र ही उस गवेयों के शिरोमणि को लेकर आओ। उसके इस प्रकार कहने पर वे दोनों शीघ्र ही मूलदेव के पास आयीं। तब मूलदेव ने गाने से विराम लिया। उसने कहा-हे गवैये! हमारी स्वामिनी आपको बुला रही हैं। यह पहली दासी भी आप ही को बुलाने के लिए भेजी थी। अतः प्रसन्नता पूर्वक पधारें, जिससे हमारी स्वामिनी भी खुश हो जाय। उसकी बात को अनसुनी करते हुए मूलदेव ने कोई उत्तर नहीं दिया। जब उन्होंने दो बार - तीन बार कहा तो उसने पूछा- भद्रे ! तुम्हारी स्वामिनी कौन है ? दासी ने कहा-देवदत्ता नामक वेश्या हमारी स्वामिनी है। उसने कहा- अगर वेश्या है, तो फिर और कुछ बात करना । वेश्या तो सोचती कुछ है, कहती कुछ है और करती कुछ अन्य उसके तीन प्रकार की परिणति होने से
कौन उस पर अनुरक्त होवे ? किसी ने ठीक ही कहा है
को हि वेश्यासु रज्यते ।
वेश्याओं में कौन रक्त होता है ?
जो अखिल नारी जाति में निकृष्ट है तथा करोड़ों जारों से निघृष्ट है। हृदय से दुष्ट व मुख पर मीठी वेश्या सज्जनों को अभीष्ट नहीं है। जब वह स्पृहा युक्त नजर डालती है तो कामुक का सर्वस्व ले लेती है, यहाँ तक कि वस्त्र भी नहीं छोड़ती। वेश्या धनानुरागिणी होती है गुणानुरागिणी नहीं। अगर कुष्ठीपुरुष भी धनवान होता है, तो उसको मदन देव के समान लगता है और धनहीन कामदेव भी उसको कुष्ठी के समान लगता है । हे कुब्जा दासी ! हमारे साथ तो वेश्याओं का वैर है। क्योंकि वेश्या धन चाहती है, जो कि हमारे पास नहीं है।
यह सुनकर उस कुबड़ी दासी ने वाणीकुशलता के साथ कहा- तत्त्वविद होते हुए भी आपने बिना विचारे कथन किया है। कहा भी गया है
श्रीखण्डैरण्डयोः काष्टं फलं तालरसालयोः ।
क्षीरं सुरभिरासभ्योगिरीथः परमन्तरम् ॥
चन्दन व एरण्ड की लकड़ी में, ताल व रसाल वृक्ष के फलों में, गाय व गधेड़ी के दूध में समान तत्त्व होते हुए भी महान अन्तर होता है।
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