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मूलदेव की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् देखा? उसने कहां-हे वल्लभे! मैं वहाँ पलंग के मध्य बैठकर संपूर्ण अंगों की मालिश करवाने के बाद मानो नहा रहा हूँ। यह स्वप्रमुझे बींध रहा है। यह दुःस्वप्न अमंगल रूप है। इसका प्रतिघात करने के लिए तुम मुझे यहीं स्नान करवाओ। यह सुनकर उसकी मां शीघ्र ही संपूर्ण स्नान की सामग्री लेकर वहाँ आ गयी। देवदत्ता ने कहा-स्नान पीठ पर विराजें। उसने कहा-हे सुभ्र! इन तूली के बिस्तर के नाश से मत डरो। मैं इससे भी दुगुने मूल्यवाली तूली से बना हुआ पलंग तुम्हारे लिए संवादित करूँगा, अतः इसकी कंजूसी मत करो।
तब उसने वहीं अभ्यंगादि पूर्वक स्नान करना शुरु किया। उसका नहाया हआ पानी मलदेव के सिर पर गिरने से वह बहुत व्यथित हुआ। उसने विचार किया-हाय! आज किस तरह मेरा पराभव हुआ। ठीक ही है
यद्वा विषयलोलानामनर्थः कोऽत्र दुर्लभः।। विषयलोलुपी नरों का अनर्थ यहाँ कहाँ दुर्लभ है?
अन्यथा कहाँ तो मैं राजपुत्र और कहाँ यह वणिक्-पुत्र। इस दुर्मति द्वारा भी मुझे नीचा दिखाकर मेरा क्षय किया गया है। इस प्रकार विचार करके उस पलंग के नीचे से ऐसे निकला, मानो साँप अपने बिल से बाहर आया हो। उसके निकलते ही अचल ने अपने हाथ द्वारा साँप के फन को पकड़ने के समान उसकी गरदन पकड़ ली। फिर कहा-हे सभ्य! क्या तुम्हारा यह कार्य साधु है? उसने कहा-नहीं। यह अच्छा नहीं है। महात्माओं द्वारा गर्हित है। तो फिर, हे सर्व-अद्भुत कला के निधि! तुम्हारे साथ क्या किया जाय? मूलदेव ने कहा-जो तुम्हें अच्छा लगे और जो तुम्हारे कुल के लिए उचित हो। तब अचल ने उससे कहा-यह क्या कहते हो? गुणों के सागर होने पर भी दैव के वश से तुमने इस प्रकार का व्यसन प्राप्त किया है। मझे तम पर खेद होता है। इसे छोड दो. क्योंकि राह तो ददैर्व के योग से केवल शिर को ही ग्रसित करता है, पर यह व्यसन तो हजारों हाथों से हमें ग्रसित करता है। हे महात्मन्! तुम मेरी तरफ से मुक्त हो। तुम्हारा कल्याण होवे। अगर कदाचित मैं व्यसन (संकट) को प्राप्त हो जाऊँ, तो तुम भी मेरी रक्षा करना।
उसका वचन स्वीकार करके मूलदेव वहाँ से निकल गया। अपमानित होकर मन में इस प्रकार विचार करने लगा-इस नगर के सौहार्दशाली लोगों को मैं अपमान से मुरझाया हुआ अपना मुख-कमल कैसे दिखाऊँगा? इस प्रकार विचार करके कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य से पराङ्मुख होकर तत्क्षण ही वेण्णातट पुर के लिए रवाना हो गया। देवदत्ता की मां सूर्यास्त से पापिनी की तरह रात्रि में घूमने वाली वधू की तरह मूलदेव के पराभव से अत्यधिक प्रसन्न हुई। उधर देवदत्ता अपने प्राणेश्वर की विडम्बना देखकर उसको वज्रधारी की तरह दृष्टि से भेदती हुई अचल के प्रति क्रोधित हुई। अर्द्ध स्नान कराये हुए अचल को वैसे ही छोड़कर कुपित होती हुई पति को परदेश गया हुआ जानकर शीघ्र ही राजा के पास गयी। राजा ने भी कहा-हे भद्रे! विमना के समान क्यों दिखायी दे रही हो? क्या किसी ने अपमान किया है या फिर इष्ट वियोग से दुःखित हो? उसने कहा-हे देव! नाचते हुए मुझे जब आपने वर दिया था, उस समय मेरे पास एक पटहवादक पुरुष था। हे देव! वह पाटलीपुत्र के राजा का पुत्र मूलदेव था। वह कला-कुल को धारण करने वाला तथा शंख के समान उज्ज्वल यश को धारण करने वाला है। नागरिकों द्वारा गुणी जनों के शिरोमणि रूप से अलंकृत वह अपने अपमान से अन्यत्र कहीं चला गया है। मैं उस गुणों के आश्रयरूप गुणालय में अत्यन्त अनुरक्त हूँ। इस प्रकार वह राजपुत्र अत्यंत गुणी होने पर भी अचल ने साधारण मनुष्य की तरह उसका अपमान किया है। मैं शरीर से उनसे पृथक् हूँ। मेरा मन तो उनके साथ ही है। अतः उनके दुःख से दूःखी होकर मैं ऐसी हो गयी हूँ। राजा ने भी राजपुत्र का अपमान उसके मुख से सुनकर क्रोधित होकर अचल को बुलाकर पूरी घटना पूछी। फिर कहा-क्यों रे! दुष्ट! तुम इस नगर के स्वामी हो। धन के मद से उन्मत्त बनकर अमात्य-आदि को भी नहीं मानते। तुमने जो उस कलानिधि राजपत्र का अपराध किया है। बिना किसी को कहे स्वयं ही उसे दण्ड
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