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सम्यक्त्व प्रकरणम्
मूलदेव की कथा तब मां ने उसे समझाने के लिए प्रबोधमय दृष्टान्त दिये। जिस प्रकार इक्षुखण्ड के रस को पीकर नीरस कचरे को फेंक दिया जाता है। आम, केले आदि फलों को खाकर उनके छिलके फेंक दिये जाते है। अलते से रंग लेकर उसकी रंगहीन पंखुड़ियों को फेंक दिया जाता है। देवदत्ता के सम्मुख माँ द्वारा ये दृष्टान्त रखे जाने पर भी उसने अवहेलना की। उसने माँ से कहा-इस प्रकार क्या कहना चाहती हो? उसने कहा-पुत्री! तुम अपने आप को पण्डिता मानती हुई भी मूर्खा हो, क्योंकि तूम इस प्रकार के विरस को तो योग्य मानती हो और सरस को अयोग्य मानती हो। गरीब कपटी जुआरी पर तो अनुरक्त हो, पर श्रीमंत अचल पर अनुरक्ता नहीं हो। देवदत्ता ने पुनः कहा-हे माता! मैं मूलदेव के गुणों के कारण उस पर अनुरक्त हूँ। माता ने कहा-पुत्री! अचल भी मूलदेव से कम गुणी नहीं है। देवदत्ता ने कहा-माँ! इस प्रकार का अनुचित कथन मत करो। गुणों की मूलभूमि केवल मूलदेव ही है। ऐसा तो कोई देव भी नहीं हो सकता, तो मानव की तो बिसात ही क्या है? माँ ने कहा-ठीक है। अगर तुम्हारा यही आग्रह है, तो फिर परीक्षा कर ली जाय। देवदत्ता ने कहा-हाँ, माँ! तुमने बिल्कुल युक्तियुक्त कथन किया है। मेरे लिये गन्ने मंगवाओ, परीक्षा हो जायगी।
तब माता ने अचल को कहलवाया कि तुम्हारी प्रिया देवदत्ता को गन्ने खाने की इच्छा पैदा हुई है। अतः अभी गन्ने भेजो। माता के इस प्रकार कहलवाते ही उसने गन्नों के बण्डल से भरी भारियों की गाड़ियाँ उसके लिए भिजवा दी। यह देख खुश होते हुए मां ने देवदत्ता से कहा-हे बुद्धिशालिनी! देखो! आश्चर्य युक्त यह उदारता मेरे जामाता की देखो।
देवदत्ता ने क्रोधपूर्वक कहा-मैं क्या हथिनी हूँ, जो कि मेरे सामने गन्नों का देर लगा दिया है। अब तुम मूल देव को भी कहो। माता के द्वारा कहलाने पर मूलदेव तुरन्त ही जुए को छोड़कर उठ खड़ा हुआ जो थोड़ा सा द्रव्य जुए में जीता था, उससे अच्छी-अच्छी परीक्षा करके ५-६ इक्षुलता खरीदी। उनके मूलाग्र को हटाया। छुरी से उसे छीलकर दुर्भेद्य ग्रन्थि को काटकर दो-दो अंगुल के अमृत भरे टुकड़ेकर तज, इलायची, तमालपत्र तथा नागकेसरइन चार रसातिशयकारी श्रेष्ठ द्रव्यों से संस्कृत करके घनसार के अर्क से अधिवासित करके, हाथ से स्पर्श न करना पड़े, अतः एक-एक टूकड़े में एक-एक काँटा लगाकर शकोरे में रखकर दासी के हाथ से उसके पास भेजा।
देवदत्ता ने स्वयं देखकर अपनी माता को दिखाया और कहा-माता! देखो! दोनों में यही अंतर है। तब उसकी माँ चुप होकर क्रोधाग्नि से जलते हुए दुष्ट बुद्धि द्वारा मूलदेव के छिद्रान्वेषण करने लगी।
एक दिन उसकी माता ने अचल सार्थपति से कहा-इसका अनुराग मूलदेव पर है, तुम पर नहीं। तो इसका अपमान करके किसी भी प्रकार इसे यहाँ से निकालो, जिससे देवदत्ता तुम में ही दृढ़ प्रेम वाली हो जाय। अचल ने जाकर देवदत्ता से कहा-हे वल्लभे! मैं अन्य गाँव जा रहा हूँ। दो-तीन दिन में शीघ्र ही वापस आ जाऊँगा। इस प्रकार छलपूर्वक कहकर वह चला गया। देवदत्ता ने भी हर्षित होते हुए मूलदेव को बुलवाकर स्वेच्छापूर्वक रमण करना शुरु कर दिया।
माता द्वारा बताने पर अचल ने वह सब वृत्त जाना, तो वहाँ आकर अपने सैनिकों द्वारा देवदत्ता के आवास को घेर लिया। फिर स्वयं हाथ में छुरी लेकर प्रवेश किया। मध्य में स्थित मूलदेव की लीला से अनजान बनकर वह वहाँ आया। उसको अचानक आया हुआ देखकर भय से देवदत्ता ने मूलदेव को शीघ्र ही पलंग के नीचे छिपा दिया। अचल भी वहाँ आकर पलंग पर बैठकर देवदत्ता से बोला-हे प्रिय! शकुन की स्खलना से मैं ग्रामान्तर को नहीं जा पाया। इधर-उधर देखकर मूलदेव कहीं भी दिखायी न पड़ने पर उसने सोचा कि मूलदेव पलंग के नीचे ही है, इसमें कोई संशय नहीं है।
अतः उसने शठता पूर्वक कहा-हे प्रिये! मैंने रात्रि में एक दुःस्वप्न देखा। उसने पूछा-प्रिय! किस प्रकार का
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