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मूलदेव की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् होने पर सामन्तों आदि के साथ सभी ने उसका अभिषेक किया। तब आकाश से देववाणी हुई कि देवों के अनुभाव से यह राजा विक्रमराज के नाम से ख्यात होगा। इन्द्र की आज्ञा की तरह इसकी आज्ञा का जो कोई भी भंग करेगा, उसे वज्र के समान महादण्ड से दण्डित किया जायगा।
यह देव वाणी सुनकर सामन्त सचिव आदि सभी चकित रह गये। सैनिकों के नियम की तरह सभी उसकी आज्ञा के वशवर्ती हो गये। मूलदेव परम राज्य तथा विशाल समृद्धि से युक्त होकर भी देवदत्ता के बिना अपने आपको रसरहित काव्य की तरह मानता था। अतः उसने अवन्तीपति के साथ सौहार्द सम्बन्ध बनाया। जिसके द्वारा चतुरता से मेरा कार्य साधा जा सके। फिर निघूणशर्मा सद्वड ब्राह्मण को बुलाकर उसकी अदृष्ट सेवा के लिए उसी गाँव को उसे दे दिया।
फिर एक दिन अनगिनत उपहारों को हाथ में देकर दूत को अवन्तीपति की सन्निधि में देवदत्ता को लाने के लिए भेजा। उस दूत ने उज्जयिनीपुरी में जाकर जितशत्रु राजा को उपहार अर्पितकर नमस्कार करके कहा-देव! देवता से प्राप्त वरदान के कारण मूलदेव अब वेण्णातट नगर में विक्रमराज नामक राजा बन गया है। उन्होंने कहलवाया है कि आप भी जानते हैं कि वस्त्र में रही हुई नीली रंग की तरह मेरा देवदत्ता में प्रेम है। अतः उस भामिनी को भेज ने की कृपा करें। उसके बिना यह राज्य संपदा मूलदेव के लिए दुर्भाग्य के समान है।
अवन्तीराज ने दूत से कहा-हे दूत! बस इतनी सी बात है। मैं तो मूलदेव को अपने आधे राज्य का स्वामी मानता हूँ। उस कलानिधि के यहाँ आने का हमें पता ही नहीं चल पाया, यह बात हमें अन्तः शल्य की तरह सदैव दुःख देती है। फिर शीघ्र ही देवदत्ता को बुलाकर राजा ने कहा-हे भद्रे! तुम्हारा मनोरथ रूपी तरु फलों से परिपूर्ण हुआ। मूलदेव देवता के वरदान से वेण्णातट पुरी में राजा बन गया है। उसने तुम्हें बुलाने के लिए अपना विशिष्ट दूत भेजा है।
राजा के आदेश से देवदत्ता मुदित होती हुई अपनी समग्र सामग्री के साथ वेण्णातट पुर गयी। राजा मूलदेव ने भी रति की मूर्ति स्वरूपा देवदत्ता का प्रसन्नतापूर्वक नगर प्रवेश करवाया। फिर कहा-हे प्रिये! अब मेरे चित्त में राज्य आया है। तुम्हारे बिना तो मैं चित्त से तो राज्य से परे ही था।
तब धर्म, अर्थ, काम द्वारा परस्पर बिना बाधा के मूलदेव राज्य को शासित करता हुआ पृथ्वी को सुशोभित करने लगा।
एक दिन अचल भी उस राज्य के समीपवर्ती दूसरे किनारे से विविध माल से युक्त सागर के महापोत की तरह वहाँ आया। चावल से पूर्ण भरे हुए पात्र की तरह रत्नों से भरा थाल लेकर वह रत्नाचल की तरह अचल विक्रमराज के पास उपस्थित हुआ। देखने मात्र से राजा ने उसको पहचान लिया। मेरा अपकारी और उपकारी यह अचल है। अतः मैं भी इसका उपकार व अपकार दोनों ही प्रतिकारों को करूँगा क्योंकि लोगों में यही रुदि है।
लेकिन अचल ने नहीं पहचाना कि यह राजा वही मूलदेव है। पहचानता भी कैसे? उस गरीब ने तो साम्राज्य संपदा को प्राप्त कर लिया था। उसने राजा को पंचकुल देखकर क्रय शुल्क ग्रहण करने को कहा। पंचकुल का तात्पर्य यह है कि देश से देशान्तर वाणिज्य के लिए जाने पर राजा माल को देखकर शुल्क ग्रहण करता था।
राजा ने कहा-श्रेष्टि! हम स्वयं आयेंगे। उसने भी कहा-मैंने तो कोड़ी की इच्छा की थी, पर मैंने तो रत्न को पा लिया। तब राजा अचल के सार्थ में गया। उसने राज कर्मचारियों को माल का भण्डार दिखाया। राजा ने पूछाश्रेष्ठि! क्या इतना ही माल है जो तुमने दिखाया है अथवा अन्य भी माल है। पुनः देखकर मुझे अच्छी तरह बताना। झूठ मत बोलना। क्योंकि मेरे राज्य में शुल्क-चोर भी चोरों की तरह निगृहित किये जाते हैं। अचल ने भी कहा-देव! आप मुझे ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या मैं आपके सामने भी अन्यथा कहूँगा? उसके कथन से संतुष्ट हुए की तरह
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