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मूलदेव की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् तब उसके सर्वातिशायी सत्त्व से रंजित होकर अपना दिव्य रूप प्रकटकर उससे कहा-हे महाभाग! गुणाकर! तुम धन्य हो! कृतकृत्य हो! महात्मा हो। सुलभ्य मनुष्य जन्म व जीवन तुमने सफल बना लिया है। जिस प्रकार से तुम इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में दृढ़ीभूत हो, उससे निश्चय ही सिद्धि तुमसे दूर नहीं है। फिर शकेन्द्र द्वारा प्रशंसा और अपनी असहिष्णुता का वृतान्त बताकर क्षमा माँगते हुए वह देव उसके चरणों में गिर गया। फिर कहा-हे देवानुप्रिय! हे सत्व महोदधी! इन तीन परीक्षाओं से तुमने साबित कर दिया है कि शक्र भी तुम्हारा पार नहीं पा सकता। इस प्रकार पुनः पुनः भक्तिपूर्वक स्तुति करके उसको प्रणिपात करके, चित्त में उसी का चिन्तन करते हुए वह सुर अपने स्थान पर चला गया। उपसर्ग को गया हुआ जानकर कामदेव भी बन्धन से मुक्त मनुष्य की तरह निवृति को प्राप्त हुआ। उसने चिन्तन किया कि मैं निश्चय ही सुदर्शन आदि के समान धन्य हूँ, क्योंकि गाद उपसर्ग आने पर भी मैंने अपने लिये हुए व्रत को नहीं छोड़ा। प्रातःकाल प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर उसने पौषध को पारा। उत्सव में उत्सव की तरह उसने जिन का आगमन सुना। फिर प्रभु के समवसरण में उसी समय चला गया। क्यों न हो
यदिष्टदर्शनोत्कण्ठा दुर्द्धरा सिन्धुपूरवत् । इष्ट व्यक्ति के दर्शन की उत्कण्ठा नदी के पूर की तरह होती है, जो कहीं भी नहीं रूकती।
प्रभु को नमन करके प्रीतिपूर्वक उपासना करने के लिए वह बैठ गया अत्यधिक अभीष्ट वस्तु चिरकाल बाद प्राप्त होने से उसे कैसे छोड़ा जा सकता है। स्वामी ने कहा-हे देवानुप्रिय! अर्द्धरात्रि में तुम्हें दारुण उपसर्ग प्राप्त हुआ, पर तमने उसे सम्यग रीति से सहन किया। उसने भी कहा-भगवान्! इसमें भी आपकी कृपा ही कारण है। अन्यथा उनको सहने में मैं बिचारा क्या कर सकता था। स्वामी ने कहा-हे भद्र! तुम धन्य हो! तुमने भव समुद्र का पार पा लिया है. क्योंकि निर्ग्रन्थ प्रवचन में तम्हारी इस प्रकार की प्रतिपत्ति है। स्वयं भगवान महावीर परमानन्द धारण करता हुआ वन्दनाकर घर चला गया।
भगवान ने साध-साध्वियों को शिक्षा देने के लिए उन्हें बलाकर कमल जैसी सकमार वाणी में कहा-हे साध-साध्वियाँ यदि गहस्थ भी प्राणों को तणवत मानकर दुष्कर उपसर्गों को सहन करते हैं, तो आप तो श्रतअध्ययन से भावित हैं। आपके द्वारा क्यों नहीं सहन किया जाये। उन्होंने भी भगवान के इन वचनों को सम्यक प्रकार से स्वीकार किया।
फिर कामदेव श्रावक ने भावना भाते हुए श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा को ग्रहण किया। निरन्तर तप से तप्त होते हुए ध्यान में रहते हुए कामदेव श्रावक इतना कृश हो गया कि उसके शरीर पर केवल चर्म व अस्थि ही शेष रह गयी। इस प्रकार उपासक पर्याय को निरतिचारपूर्वक बीस वर्ष तक पालकर एक मास की संलेखना धारण की। आलोचना प्रतिक्रमण द्वारा भाव शल्य से रहित होकर समाधि रूपी अमत का पान करते हए उस कालज्ञ ने काल प्राप्त किया। सौधर्म देवलोक के अरुणाभ विमान में चार पल्योपम की आयु वाला महाऋद्धि संपन्न देव हुआ। पुनः महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर कर्म रज से विमुक्त होकर अपुनर्भव रूप मोक्ष को प्राप्त करेगा।
इस प्रकार कामदेव के समान जो धीर-पुरुष कठिनाई से तैरने योग्य दुःख सागर में गिर पड़ने पर भी पौषध व्रत का उच्च भावों के साथ पालन करते है, वे शिव वधू को अपने वश में कर लेते है।
इस प्रकार पौषधव्रत में कामदेव की कथा संपन्न हुई। अब अतिथि संविभाग व्रत पर मूलदेव की कथा को कहते है
|| मूलदेव की कथा || गोड़ नामक एक देश था, जो स्वर्ग की नकल की हुई पृथ्वी की तरह शोभित था। उस राज्य को देखकर ही
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