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सम्यक्त्व प्रकरणम्
कामदेव की कथा किं हि दूरं दिवौकसाम् ? देवों के लिए कुछ भी दूर नहीं है।
कामदेव को क्षुभित करने के लिए देव ने क्रूर दारुण हुंकार भरी। फिर यम के सहोदर की तरह पिशाच का रूप बनाया। गाय को जिस भाजन में भोजन दिया जाता है, उस भाजन के समान शिर बनाया। अग्नि से जलते हुए के समान भूरे बाल थे। दोनों कान सूपड़े की तरह प्रतीत हो रहे थे। हिंगलु और माणिक्य के समान लाल मुख था। चिपटा विषम आकार का नाक था। घोड़े की पूंछ के समान काले विकराल दाँत थे। ऊँट के होठों के समान मोटेमोटे उसके होठ थे। हल के नीचे के लोखंड के फल के समान उसके बाहर निकले हुए प्रतिदन्त थे। पेट बहुत बड़ा तथा जंघाए ताड़ के समान थीं। बाघ की खाल को उसने शरीर पर धारण कर रखा था। तवे के तले के समान काले वर्णवाला वह राक्षस साक्षात् पाप रूपी तम की मूर्ति लग रहा था। नेवले के समान लम्बे-लम्बे बाल थे। काचिंडे के समान लाल कण्ठिका थी। भुजंग को उसने जनेऊ की तरह धारणकर रखा था। मुसे के समान काँटेदार वक्ष था। भयंकर अट्टहास के द्वारा ब्रह्माण्ड को चलित करने के समान, आकाश में बिजली की तरह हाथ से तलवार को घुमा रहा था। वह कामदेव के पास जाकर बोला-हे! शठता का सेवन करनेवाले! इन्द्रजाल की तरह तुम्हारा यह दम्भ रूपी आडम्बर क्या है? अगर तुम कदाग्रह से इन व्रतों का भंग नहीं करोगे, तो शीघ्र ही इस तलवार से तुम्हारे सैकड़ों टुकड़े कर दूंगा। तब प्रहार की पीड़ा से आर्त्त होकर करुण स्वर में विलाप करते हुए तुम नितान्त असमाधि की शरण प्राप्त करोगे। अतः इस पाखण्ड को छोड़कर मेरे चरण कमल में नमन करके अपने घर चले जाओ। इस भोग वंचना से अब बस करो। पिशाच के इस प्रकार कहने पर भी वह सात्त्विक कामदेव उसके कथन को सुनकर न तो डरा, न ही क्षुभित हुआ। उसके दो-तीन बार ऐसा कहने पर भी वह ध्यान से चलित नही हुआ। क्योंकि
चलति शैलेन्द्रः कि वात्यानां शतैरपि? सैकड़ों हवाएँ चलने पर भी क्या पर्वतराज चलित होता है?
तब राक्षस ने क्रुद्ध होकर तलवार से कुम्हड़े की तरह उसके सैकडों टूकड़े कर दिये। उसने भी निश्चल रहकर उस दुस्सह वेदना को सहा।
फिर उस देव ने राक्षस के रूप का संहरण करके हाथी का रूप बनाया। उमड़े हुए बादलो की तरह गर्जना करते हुए उसने कामदेव को कहा-अगर तुम मेरा कहा हुआ नहीं करोगे, तो अपनी सूंड से तुमको गेंद की तरह आकाश में उछाल दूंगा। वापस आकाश से नीचे गिरते हुए तुम्हें भालों के समान तीखे दाँतो पर ग्रहण करूँगा। पृथ्वी पर पटककर पैरों से तिल की तरह रौंद डालूंगा। इस प्रकार आतंक उत्पन्न करने के लिए उसने दो बार, तीन बार यह कथन कहा। पर बिना उद्विग्न हुए मौनपूर्वक वह ध्यान में स्थित रहा। सत्त्व में एकीभूत होकर कामदेव जरा भी न डरा। वैसे ही ध्यान में खड़ा रहा। तब क्रोध में जलते हुए देव ने जो कहा था, वही कर दिखाया। कामदेव ने भी उस सारी व्यथा को समभाव से सहन किया। पर बन्दी बनाये हुए कंजूस की तरह उसके वचन को नहीं माना।
हताश होकर देव ने हाथी का रूप छोड़कर भयंकर फन वाले नाग का रूप धारण किया। उस रूप में भी उसने दो तीन बार धर्म का त्याग करने को कहा। फिर भी उसको निडर देखकर साक्षात क्रोध ने उस देव में अवतार ले लिया। जिस प्रकार नाड़ी की धूरी चमड़े से वेष्टित की जाती है, उसी प्रकार उसकी ग्रीवा को अपने शरीर द्वारा कसकर आवेष्टित करके उसे अपनी दाद द्वारा द्वीधा से पीड़ित की तरह जोर से डस लिया। वज्र के समान दुर्भेद्य ध्यान में दृढव्रती कामदेव श्रावक उस उपसर्ग से भी चलित नहीं हुआ। तब उस देव ने विचार किया कि
प्रायस्तृतीयोड्डयने मयूरोऽपि हि गृह्यते । प्रायः तीसरी उड़ान में मयूर पकड़ा ही जाता है, पर तीसरे उपसर्ग से भी यह मेरे द्वारा चलित नहीं हुआ।
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