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सम्यक्त्व प्रकरणम्
अमरचंद्र की कथा
जय
जन 1ला५
करते हुए विचार किया-अहो! इनका कुल सत्त्व रूपी रत्नों का सागर है। जयश्री के प्रेम-उत्कर्ष को जानकर कुमार भी प्रसन्न हुआ। चिता पर आरुद होने से कसोटी पर कसे हुए स्वर्ण की तरह खरी साबित हुई। कुमार ने एकमात्र पुण्य की अधिकता से चकवर्ती के समान उन सभी राजाओं पर दुर्जय जीत हासिल की। संपूर्ण राजाओं पर जयश्री प्राप्त करके द्विगुणित जयश्री को चक्रवर्ती द्वारा रोहिणी की तरह प्राप्त किया। जयश्री से युक्त होकर वह अपने राज्य में आया। अपने देश की जनता के कमल नयनों को सूर्य की तरह विकसित बनाते हुए मनोरम शोभा से युक्त अपने पुर में प्रवेश करके जयश्री के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता को प्रणाम किया। पुत्र के द्वारा जयश्री की प्राप्ति होने से सुरसुन्दर राजा का प्रमोद व उल्लास सागर की तरह वृद्धि को प्राप्त होता हुआ कल्लोलें मारने लगा। युवराज की
पुण्योदय को जानकर परवासियों ने चिन्तन किया कि यह भविष्य में पिता से भी ज्यादा अतिशय को प्राप्त करेगा।
एक दिन राजा अपनी सभा में बैठा हुआ मंच, परदे आदि आडम्बरों से युक्त लढ नृत्य देख रहा था। जैसे मृग संगीत में आसक्त होकर सुध-बुध खो देता है, उसी प्रकार राजा भी उस में अत्यन्त लीन होकर परवशता के साथ उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा था। तभी वहाँ पर आकाश मार्ग से चारण मुनि आये। दिव्य ज्ञान से पवित्र तथा चारित्र की मूर्ति स्वरूप वे मुनि थे। उन्हें देखकर राजा ने उनको श्रेष्ठ आसन पर बिठाया और कर संपुट जोड़कर विनयावनत होकर कहा-प्रभों! एक ही विनती है। आप नाराज मत होना। एक क्षण के बाद हम लोग आपकी धर्मव्याख्या सुनेंगे। मेरा ध्यान अभी उत्सव की तरफ है। लङ्ख नृत्य देखने में मैं रस की अतिशयता पर आरुद हूँ। अतः पहले इस नाटक को देखूगा। मुनि ने कहा-हे राजन्! हम स्वयं भव-राग के आँगण में लगातार नृत्य कर रहे हैं। अतः इसमें विस्मय कैसा? राजा ने कहा-भगवान! आपके वचन गंभीर अर्थ के द्योतक है। मैं इसका अर्थ नहीं जान पाया। अतः आप इस का अर्थ प्रकाशित करें। मुनि ने कहा-हे महाभाग! यह संसार एक नृत्य भूमि है। गगन की ऊँचाइयों तक जानेवाला मोह नामक महान व सुदृढ बांस है। चार गतियों द्वारा यह चारों ओर से दृढ़ रूप से बंधा हुआ है। चारों तरफ कषाय नाम की कीलिकाएँ गाद रूप से गाड़ी हुई हैं। आठ कर्म रूपी आतोद्य वादन आदि विभिन्न प्रकार की सज्जाएँ है। तुम्हारे जैसे मनुष्य देव आदि नाना रूपों में नृत्य करते हैं। ____ यह सुनकर प्रति बुद्ध होते हुए राजा ने लङ्ख को इच्छित दान आदि देकर विसर्जित किया। धोरी की तरह युवराज पर राज्य का भार आरोपित करके राजा ने उसी मुनि की सन्निधि में संयम प्राप्त किया। अमरचन्द्र ने भूपालों के मण्डल को जीतकर राज्य में अपनी भुजाओं से अर्जित महाराज शब्द को प्राप्त किया। मित्र कुरुचन्द्र को उसने अपना मंत्री बनाया। राज्यचिन्ता उस पर छोड़कर सुकुमारता को धारण कर लिया। जयश्री में विहित आसक्ति से विषय लम्पट होते हुए राजा भी राजपत्नी की तरह अंतःपुर को नहीं छोड़ता था। युवराज की अवस्था में अर्जित उसके प्रताप के तेज द्वारा कुरुचन्द्र अपने मित्र के सागरान्त यश को धरतीतल पर फैलाने लगा।
एक बार पुत्र जन्म के उत्सव पर मित्र के अनुरोध से सुरसुन्दर पुत्र राजा अमरचन्द्र अपने आस्थान मण्डप पर बैठा। उस अवसर पर सभी राजा को प्रणाम करने आये। सामन्त, अमात्य, सैनिक, पौरजन आदि विभिन्न पदाधिकारी राजा से मिलने आये। उनके साथ बातचीत करते हुए जयश्री से वियुक्त राजा को रात्रि का एक प्रहर भी एक युग के समान प्रतीत हुआ। फिर राजा उठकर तुरन्त अन्तःपुर में गया। उन्होंने वहाँ जयश्री के पास किसी अन्य पुरुष को देखा। विषादग्रस्त मुख मुद्रा द्वारा राजा ने सोचा-अहो!
दुश्चरितं स्त्रीणां विधेरपि न गोचरे। स्त्रियों का दुश्चरित्र विधाता द्वारा भी अगम्य है। उस प्रकार से इसके प्रेम की परीक्षा करके मैंने इससे शादी की। इसके राग में रंजित होकर मैंने राज्य-चिन्ता
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